“प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हम नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं, और 31 मार्च 2026 तक भारत नक्सल-मुक्त हो जाएगा।”
“हमारे सशस्त्र बलों ने अब तक के सबसे बड़े एंटी-नक्सल ऑपरेशन को महज 21 दिनों में ही पूरा कर लिया, और इस ऑपरेशन में सशस्त्र बलों को कोई जान-माल का नुकसान नहीं हुआ है”
-14 मई 2025 को गृह मंत्री अमित शाह 

बीजापुर, छत्तीसगढ़: बीजापुर के जिला अस्पताल के शवगृह में सड़ांध पसरी पड़ी थी। शवगृह में घुसते ही पहला सामना भभकाती दुर्गन्ध से हो रहा था। शवगृह के अंदर एल्युमीनियम के रैकों में एक के ऊपर एक शवों को रखा गया था, और फ्रीजर न होने की वजह से मई की भयंकर गर्मी में फूल चुके शव अब सड़ रहे थे।

चेहरे को दुपट्टे से कस कर बांध, धीमी सांसों के साथ शवगृह में अपने परिजनों की शिनाख्त करने के लिए दाखिल हुए आदमी और औरतें रैकों में रखी लाशों की खून से सनी हर एक बोरी को खोल-खोल कर देख रहे थे। वो लोग जिन्होंने बोरी के खुलते ही लगने वाले सदमे के लिए खुद को तैयार भी कर रखा था उन लोगों को भी खुली बोरी से छोटी उम्र की एक महिला की कीड़े पड़ी लाश की बरामदगी होने पर घबराकर पीछे हटते देखा जा सकता था। 

बीजापुर के तोड़का नामक गांव के जोगा (बदला हुआ नाम) ने कहा कि, “मैं अपनी बहन की लाश को पहचान नहीं पा रहा हूं, 17 साल की उम्र में वो माओवादी बन गई थी और अब 22 साल की उम्र में वो हमारे बीच नहीं है।” इतना कहने के बाद जोगा ने अपने माता-पिता और छोटी बहन से कुछ सलाह-मशविरा किया और अंत में वो लोग शव पर दावा किए बिना ही शांति से चले गए।

21 अप्रैल को छत्तीसगढ़-तेलंगाना बॉर्डर पर स्थित कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ शुरू हुई 21 दिनों तक चली “ऑपरेशन कर्रेगुट्टा” नामक चढ़ाई की बीजापुर स्थित अधिकारियों ने 14 मई को समाप्ति की घोषणा कर दी। अधिकारियों ने 16 महिलाओं समेत कुल 31 माओवादियों के मारे जाने की जानकारी दी। 

कर्रेगुट्टा रेंज के गगनचुंबी व धूसर पहाड़ियों की पास सी ली गई एक तस्वीर, ये पहाड़ियां भारी बमबारी की चपेट में आ गईं थीं। सोर्स: मालिनी सुब्रह्मण्यम 

आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, “हथियार बंद माओवादियों की पकड़ को कमजोर करने, उनकी सशस्त्र टोलियों को निष्क्रिय करने, उनको कठिनाई भरे जंगली पहाड़ों पर से हटाने और उनकी PLGA बटालियन के खात्मे के लिए” डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (DRG), स्पेशल टास्क फोर्स (STF) के साथ-साथ COBRA कमांडोज को मिलाकर CRPF और छत्तीसगढ़ पुलिस ने 60 किलोमीटर के जंगली पहाड़ों पर “एक बड़े स्तर का ज्वाइंट ऑपरेशन चलाया था।” 

इस कार्रवाई में सशस्त्र बलों ने “माओवादियों के 216 ठिकानों और बंकरों को नेस्तनाबूद करने के साथ-साथ 450 इंप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसों (IED) को डिफ्यूज कर दिया, और सशस्त्र बलों ने ग्रेनेड लांचर की नली में प्रयोग हुए 818 गोलों, डेटोनेटिंग कार्ड्स के 899 बंडलों, डेटोनेटर और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद की भी बरामदगी की।” 

ऑपरेशन कर्रेगुट्टा पर अधिकारियों की तरफ से आई यह प्रेस विज्ञप्ति वास्तव में अंदरूनी तौर पर समस्या निवारण की जगह समस्या को और अधिक बढ़ा देने की कहानी बया करती है। दावा किया गया कि ऑपरेशन कर्रेगुट्टा, “हालिया समय में किया गया सबसे बड़ा और सबसे विस्तृत एंटी-माओइस्ट आक्रमण” था। दावे के अनुसार माओवादियों की लीडरशिप को एक निर्णायक चोट देना इस ऑपरेशन का मुख्य लक्ष्य था। लेकिन ऑपरेशन के तहत बल प्रयोग के परिणाम में सरकार के पास दिखाने को वास्तव में ज्यादा कुछ था नहीं। हालांकि ऑपरेशन कथित रूप से कर्रेगुट्टा रेंज में शरण प्राप्त माओइस्ट सेंट्रल कमेटी के वरिष्ठ सदस्यों को निशाना बनाते हुए उन्हें निष्क्रिय करने का दावा कर रहा था, लेकिन कार्रवाई के दौरान वरिष्ठ माओवादी नेताओं में से न तो किसी को पकड़ा गया और न ही मारा गया। और साथ में ऑपरेशन ने इस बात पर पर्दा डाल दिया कि कैसे पूरी कार्रवाई ने फायदे की जगह कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचाते हुए मुठभेड़ के बीचोबीच फंसे आदिवासी समुदायों को मानवीय क्षति पहुंचाई, और इस तरह सरकार व उसके सबसे ज्यादा निचले तबके से आने वाले नागरिकों के बीच, इस ऑपरेशन ने, दूरियों को कहीं ज्यादा बढ़ा दिया। 

प्रेस मीटिंग में इस प्रश्न के जवाब में कि इस ऑपरेशन के तहत वरिष्ठ माओवादियों की धरपकड़ के घोषित उद्देश्य की पूर्ति हुई है कि नहीं छत्तीसगढ़ पुलिस के डायरेक्टर जनरल ने कहा कि सशस्त्र बलों को “उससे ज्यादा सफलता मिली है जितने का उन्होंने लक्ष्य निर्धारित किया था” और “जैसा कि 2026 के मार्च तक देश से नक्सली हिंसा को खत्म करना तय हुआ है, यह ऑपरेशन नक्सली हिंसा के खात्मे को चिन्हित करता है।”

फड़फड़ाते चॉपर और कई दिनों तक घने जंगलों के आर-पार गूंजती धुआंधार बिजली की कड़क पैदा करने वाले ऑपरेशन कर्रेगुट्टा में कोई बड़ी ट्रॉफी मिले बिना, ऑपरेशन के संपन्न होने के एक हफ्ते बाद सरकार इस पूरी कार्रवाई को अपने नैरेटिव के अनुसार ‘असल जीत’ बताकर संबोधित करने में सफल रही। 

लेकिन सरकार को असल सफलता कर्रेगुट्टा में नहीं बल्कि कर्रेगुट्टा से कई किलोमीटर दूर दो जिलों, नारायणपुर और बीजापुर, के बीच स्थित अबूझमाड़ के घने जंगलों में मिली थी जहां प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के जनरल सेक्रेटरी, नंबला केशव राव और 26 अन्य माओवादियों को मार गिराया गया था। हालिया समय में हुए एनकाउंटरों में ये एनकाउंटर एक सबसे महत्वपूर्ण एनकाउंटर साबित हुआ है। 

धुंध के बीच ऑपरेशन

पहलगाम आतंकी हमले के बदले में जब 7 मई को भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू किया था तब तक देश के एक कोने, कर्रेगुट्टा पहाड़ियों, में सरकार के विरोध में हथियार उठाए देश के नागरिकों के खिलाफ ही युद्ध छेड़ा जा चुका था। 

गांव वालें कर्रेगुट्टा रेंज को 200 से अधिक पहाड़ियों का एक नेटवर्क बताते हैं। ये पहाड़ियां एक प्रकार की प्राकृतिक गुफा प्रणाली से आपस में जुड़ी हुईं हैं जो बगल की चोटियों और आस-पास की बस्तियों को जन्म देती है। अपने आकर्षक परिदृश्य के अलावा कर्रेगुट्टा की ये पहाड़ियां लोगों की रोजी-रोटी के साथ-साथ उनके आध्यात्मिक जीवन के लिए भी जरूरी हैं। और साथ में ये पहाड़ियां सशस्त्र बलों की निगरानी से दूर माओवादियों को बचने के लिए अनुकूल पनाह भी देती हैं। 

सन्नाटे में शुरू हुए इस ऑपरेशन के मीडिया द्वारा घोषित कोडनेम “ऑपरेशन संकल्प” को सरकार ने नकार दिया था। जैसे-जैसे अर्धसैनिक बल कर्रेगुट्टा के तलहटी इलाकों में चढ़ाई कर रहे थे सिर्फ भारी तौर पर गुमनाम सूत्रों पर आधारिक मीडिया रिपोर्टों के माध्यम से इस कार्रवाई की सिलसिलेवार खबरें आ रहीं थीं।

किसी रिपोर्ट में कार्रवाई में 20,000 सैनिकों के होने की बात कही जा रही थी, कोई रिपोर्ट 5,000 सिपाहियों के होने की बात कह रही थी और तो कुछ रिपोर्टें कार्रवाई में तेलंगाना की ग्रेहाउंड्स और महाराष्ट्र की C-60 नामक बलों की जानी-मानी टुकड़ियों के शामिल होने की बात कह रहीं थीं। कुल जमा, ये रिपोर्टें ही धीरे-धीरे नैरेटिव को गढ़ रहीं थीं। 

जब इस रिपोर्ट की लेखिका ने तेलंगाना के मुलुगु जिले के सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस से संपर्क किया तो उन्होंने बेहद स्पष्ट तौर पर पूरी कार्रवाई में राज्य पुलिस की किसी भी प्रकार की भागीदारी होने की बात को सिरे से नकार दिया। उन्होंने कहा कि, “COBRA बटालियन को मिलाकर सिर्फ CRPF और छत्तीसगढ़ पुलिस ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था।”

पहाड़ों में “फंसे” माओवादियों लड़ाकों की संख्या को लेकर लगाया जा रहा हर एक अनुमान पिछले अनुमान से ज्यादा था। इन अनुमानों में जमीन-आसमान का अंतर दर्शाते हुए कभी माओवादियों की संख्या 150, कभी 300 और तो कभी 500 बताई जा रही थी। 

क्षेत्रीय और राष्ट्रीय, दोनों ही प्रकार के मीडिया संस्थानों में ऑपरेशन से जुड़ी जानकारियां, जैसे तैनात सशस्त्र बलों का प्रकार व उनकी संख्या, पूरे मिशन की रणनीतिक पहुंच और माओवादियों के कथित लीडरों की पहाड़ों में “फंसे” होने की खबरें सिलसिलेवार रूप से अज्ञात “वरिष्ठ अधिकारियों” के हवाले से आ रहीं थीं। 

मीडिया में छायी खबरों का एक अच्छा-खासा हिस्सा पहाड़ों में हिडमा, सुजाता, देवा, दामोदर और चंद्रन्ना जैसे माओवादी नेताओं की मौजूदगी के कयास लगा रहा था। लेकिन इन खबरों के बावजूद ऑपरेशन में एक भी शीर्ष स्तर के माओवादी कमांडर को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही ऐसे किसी भी शीर्ष कमांडर की मौत की पुष्टि हुई। 

14 मई को बीजापुर में संपन्न हुई प्रेस वार्ता में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के वरिष्ठ अधिकारियों ने ऑपरेशन कर्रेगुट्टा के संपन्न होने की घोषणा करते हुए कहा कि यह अब तक का “सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा विस्तृत एंटी-माओइस्ट ऑपरेशन था।” इस प्रेस वार्ता में छत्तीसगढ़ के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (DGP), अरुण देव गौतम, और CRPF के डायरेक्टर, जनरल जी पी सिंह, मौजूद थे। इन दोनों अधिकारियों ने ऑपरेशन की विवेचना करते हुए कहा कि, “यह ऑपरेशन हथियारबंद माओवादियों की पकड़ को कमजोर करने के साथ-साथ उनकी टुकड़ियों को कमजोर करने, उनका कठिनाई भरे इलाकों से सफाया करने और उनकी PLGA बटालियन के खात्मे के लिए चलाया गया था।” 

केंद्र के गृह मंत्री अमित शाह ने, चार दशकों से ज्यादा देश को जूझाते हुए वामपंथी चरमपंथ की अगले वर्ष मार्च तक खात्मा करने की तय समयसीमा की ओर, इस ऑपरेशन को एक उल्लेखनीय सफलतापूर्ण कदम बताया। 

‘जो युद्ध जितना ज्यादा छुपा हुआ होगा उसमे जीत दर्ज करने का दावा उतनी आसानी से किया जा सकेगा’ यह भारत में जोर मारता एक ऐसा सुरक्षा संबंधी सिद्धांत है जिसको इस ऑपरेशन ने हवा दे दी है। 

31 मौतें

ऑपरेशन कर्रेगुट्टा को लेकर हुई प्रेस वार्ता से कहीं पहले पहाड़ों के पास स्थित गांवों के ग्रामीण, ये बात सुनकर कि सिक्योरिटी ऑपरेशन में मारे गए लोगों में उनके नाते-रिश्तेदार भी शामिल हैं, बीजापुर के जिला अस्पताल में इकट्ठा होने लगे थे। 

अपने बेटे, बेटियों और भाई-बहन की शिनाख्त कर उनके शव को ले जाकर उसका सम्मानजनक तरीके से अंतिम संस्कार करने की आशा में ये लोग 9 मई को ट्रैक्टरों और मोटरसाइकिलों पर सवार होकर अस्पताल को आए थे। 

अपनी नाक और मुंह को दुपट्टे से ढके हुए हिरोली से आए एक युवक ने कहा कि, “9 मई को ड्रिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (DRG) के साथ काम करने वाले एक पुलिस के जवान ने हमें सूचित कर के हमसे हमारे गांव के तीन लोगों की लाशों को ले जाने को कहा था।” बहुत से स्थानीय इलाकों से आने वाले DRG पहले माओवादी हुआ करते थे लेकिन अब ये छत्तीसगढ़ पुलिस के रंगरूट हो गए हैं। 

जब हिरोली से आए युवक से हमारी बात हो रही थी तब शाम के 4 बज रहे थे और शवों की सड़ांध से सिर भन्ना रहा था। चूंकि शवगृह के पास ही अस्पताल का महिला एवं बाल स्वास्थ विभाग स्थित है, गर्भवती महिलाओं और दुधमुंहे बच्चों को हाथ में लिए अभिभावकों को सड़ते हुए शवों की गंध से नाक बचाते हुए तेजी से आते-जाते देखा जा सकता था। वहीं शवगृह का दूर खड़ा एक कर्मचारी मारे गए लोगों के परिजनों को खुद से स्टील के रैकों को खोलकर शवों की शिनाख्त करने को कह रहा था। 

शवों की शिनाख्त करना आसान नहीं था क्योंकि बीतते समय के साथ शवों की हालत बिगड़ती चली जा रही थी। गलन भरी गर्मी में पोस्ट-मॉर्टम किए हुए कुछ शवों की खुलती हुई सिलाई की वजह से इन शवों का फूल जाना लाजिम था। और इसी बीच कीड़े पड़ी एक कम उम्र की महिला की लाश बरामद होने से मौके पर मौजूद हर कोई सन्न रह गया। सिर्फ इस महिला के सीने को देखकर उसकी उम्र और लिंग का अंदाजा लगाया जा सकता था। 

थके हुए ग्रामीण ये सब देख कर चकरा गए और अंततः वो अचंभित होकर पीछे हट गए।

हिरोली से आए युवक ने गुड़गुड़ाते हुए कहा कि, “(मिट्टी को) ऐसे कैसे ले जाएंगे ?”

ग्रामीणों को शवों के अलग-अलग नंबर बताए गए थे लेकिन वो नंबर वास्तव में असल शवों से मेल ही नहीं खाते थे। कोसा तामो ने कहा कि, “DRG की तरफ से हमें 7 मई को हमारे रिश्तेदारों की एनकाउंटर में मारे जाने की खबर दी गई थी।” और मृत सोमडी तामो के छोटे भाई कोसा, मोटू मुड़म के परिवार के साथ, 60 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव कोंडापल्ली से ट्रैक्टर पर सवार होकर अगली ही सुबह इस उम्मीद में अस्पताल पहुंच गए थे कि शायद उन्हें मृतक का शव हाथों-हाथ मिल जाएगा। लेकिन, शव देने की वजाए उन्हें बताया गया कि शवों का पोस्टमॉर्टम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। और थाने में स्टेशन हाउस ऑफिसर के कथित रूप से “ मौजूद न होने” की बात कह के उन लोगों को थाने से वापस भेज दिया गया।

पुलिस के द्वारा शवों को ले जाने के लिए एक बार फिर से सूचित किए जाने पर, संसाधनों की कमी के बावजूद, मारे गए लोगों के परिजन पांच दिन बाद फिर से अस्पताल पहुंचे। लेकिन इस बार मृतकों के इन परिजनों को, मारे गए माओवादियों की फोटो दिखाकर शव की पहचान को पुख्ता करना और फिर आधार का प्रमाणीकरण और लाश की बोरी का निर्धारण जैसी, शिनाख्त की भारी-भरकम प्रकिया से गुजरना पड़ा। 

परिजनों के लिए शिनाख्त की ये व्यवस्थित प्रकिया भी बेहद तनावपूर्ण थी।

कम उम्र लोगों की मौतें

हिरोली के मंगल कारम ने कहा कि, “मैंने अपनी बहन मंजुला कारम की फोटो को तो पहचान लिया था” लेकिन उनकी बहन के शव को जो 11 नंबर का टैग दिया गया था वो 11 नंबर का शव इतना ज्यादा सड़ चुका था कि उसे देखकर ये बता पाना मुश्किल था कि वो शव वास्तव में उनकी बहन का ही था या नहीं। मंगल ने कहा कि, “हम कीड़े पड़ी हुई लाश को घर लाए थे, मुझे नहीं पता वो सच में मेरी बहन ही थी या कोई और।”

एक दूसरे मामले में भूसापुर की अड़मे पुनेम नाम की एक अंधेड़ महिला अपने लड़के पोडिया पुनेम की तस्वीर देखने के लिए पुलिस स्टेशन में घुसने से पहले कोई लाल रंग की एनर्जी ड्रिंक को अपने हलक से नीचे उतार चुकीं थीं। पोडिया को CPI (माओइस्ट) के डिविजनल कमेटी मेंबर के रूप में सूचित कर के पुलिस ने उसके सिर पर 8-लाख का इनाम रख रखा था। थाने में अपने भतीजे के साथ दाखिल हुई पोडिया की माँ को 23 नंबर के शव को ले जाने का आदेश दिया गया। पोडिया के परिवार ने इस बात को स्वीकारा कि तेईस वर्षीय पोडिया माओइस्ट पार्टी के साथ पांच सालों तक था। 

लेकिन पोडिया का शव बीजापुर के अस्पताल में था ही नहीं। पोडिया का परिवार एक के बाद एक लाश की बोरियों को खोलता जा रहा था और हर बार बरामद होने वाले शव को देख कर पोडिया के न मिलने पर बरामद शव के प्रति अपनी अस्वीकार्यता दर्ज कराने के लिए उसके परिवारजन अपने हाथ फटकारते जा रहे थे। 

पुलिस और हॉस्पिटल के स्टाफ के बीच हुई खूब सारी आपसी बातचीत के बाद पोडिया के परिवारजन को पता चला कि पोडिया के शव को 45 किलोमीटर दूर स्थित भैरमगढ़ हॉस्पिटल को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। जहां पोडिया की माँ, अड़मे, किसी दूसरे समूह के साथ ट्रैक्टर पर हॉस्पिटल आईं थीं, वहीं उम्र में छोटे उनके रिश्तेदार मोटरसाइकिलों पर बैठकर हॉस्पिटल पहुंचे थे। पहले से ही लाशों से भरे ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल, दोनों पर ही पोडिया के शव को नहीं ढोया जा सकता था। 

प्राइवेट एम्बुलेंस ने अड़मे की सहायता करने से इनकार कर दिया। एम्बुलेंस के ड्राइवर ने अड़मे से कहा कि, “हम माओवादियों के लिए एम्बुलेंस नही देते हैं।”

कार्यकर्ता सोनी सोरी और बेला भाटिया की पुलिस से तीखी बहस के बाद ही भैरमगढ़ से पोडिया के शव के लिए एम्बुलेंस मुहैया कराई गई। और 13 मई की रात 1 बजे ही अड़मे अपने बेटे के कीड़े पड़े शव को घर ले जा पाईं। 

मृत माओवादियों को दर्शाती हुई आधिकारिक सूची में दर्ज अधिकांश युवाओं का विवरण बहुत साफ तौर पर यह बताता है कि ऑपरेशन कर्रेगुट्टा के अपने कथित लक्ष्यों को पाने में सरकार चूक गई।

मृत विद्रोहियों के विवरण में सबसे उम्रदराज कैडर की उम्र 37 वर्ष थी। मृत कैडर में दो लोग-एक तेलंगाना स्टेट कमेटी का सदस्य और एक 27-वर्षीय मेडिकल टीम का सदस्य- डिवीजनल कमेटी के मेंबर थे। बाकी के बचे 28 मृतक प्लॉटून और पार्टी के मेंबर थे जिनमें से, प्रेस वार्ता के समय, तीन मृत लोगों की पहचान नहीं हो पाई थी। विवरण में सात कैडरों की उम्र 30 से ऊपर दर्ज की गई थी और वहीं बाकी के चौबीस कैडर 25 और 25 से नीचे की उम्र के थे। और साथ में, तीन कैडर 20 के या इससे छोटे थे। 

मारे गए लोगों में मोटू मुड़म का नाम भी शामिल था। मोटू के शव को लेने आए उसके अभिभावकों के अनुसार मोटू की उम्र महज 15 वर्ष थी, लेकिन आधिकारिक सूची में मोटू को एक ऐसे 19 वर्षीय व्यक्ति के रूप में दर्ज किया गया था जिसके सिर पर 8-लाख का इनाम था। मोटू के अभिभावकों के अनुसार, मोटू 6 महीने पहले माओइस्ट पार्टी में शामिल हुआ था। 

इसी तर्ज पर सूची में तुमरेल गांव की भीमी कुंजम को 20 साल का बताकर उसके सिर पर 5 लाख का इनाम होने की बात कही गई थी। भीमी के पिता बुदरा ने कहा कि भीमी महज 16 साल की थी और शादी से बचने के लिए वो घर से भाग गई थी। 

कुछ लोगों के लिए सरकार के द्वारा उनके जंगलों का अधिग्रहण किए जाने की धमकी एक ऐसा विषय था जिससे विवश होकर उन्होंने अपने जंगलों की हिफाजत के लिए बंदूक उठाई थी। वहीं दूसरे लोगों ने या मजबूरन बंदूक उठाई थी या फिर उनको बंदूक उठाने के लिए मजबूर किया गया था। 

मेरी लोगों से हुई पहले की बातचीतों में, विद्रोहियों के बहुत से परिवार अक्सर पछतावा करते हुए इस बात की कसमें खाते हैं कि वो अपने बाकी के बचे हुए बच्चों को इस अंडरग्राउंड लड़ाई की राह पर जाने देने की वजाए अपने जल, जंगल और जमीन की हिफाजत के लिए ग्राउंड पर रहकर सीधे तौर पर प्रतिरोध करेंगे।

बस्तर में जो लोग अपने प्रियजनों के सड़े हुए शवों को घर वापस ले जाते हैं उनके लिए मुख्य मंत्री के द्वारा इंस्टाग्राम पर ये कहा जाना कि बस्तर “शांति, विश्वास और विकास की नई इबारत लिख रहा है” वास्तव में कोई मायने नहीं रखता है। 

दुष्प्रचार से इनकार तक

प्रामाणिक जानकारी के अभाव में कर्रेगुट्टा ऑपरेशन ने तमाम तरीके के दुष्प्रचार, लाशों को लेकर किए जाने वाले दावों और लगाए जाने वाले सियासी कयासों की बाढ़ ला दी।

7 मई को एक बड़े एनकाउंटर की रिपोर्ट के तुरंत बाद छत्तीसगढ़ के चीफ मिनिस्टर विष्णु देव साय ने सार्वजनिक रूप से 22 माओवादियों के मारे की पुष्टि कर दी थी। लेकिन, कुछ घंटे बाद, गृह मंत्रालय का भी कार्यभार संभालने वाले, डिप्टी चीफ मिनिस्टर विजय शर्मा ने विष्णु देव के बिलकुल ही उलट जाते हुए ये कहकर कि ऑपरेशन संकल्प के नाम से कोई ऑपरेशन नहीं हुआ है प्रेस के ऊपर “गुमराह करने वाली खबरों” को फैलाने का आरोप लगा दिया।

शर्मा ने कहा कि, “मुझे इस बात को लेकर आश्चर्य है कि ये सूचना कहा से आ रही है, मैं आपको ये स्पष्ट रूप से बताना चाहूंगा कि ‘ऑपरेशन संकल्प’ के नाम से कोई ऑपरेशन नहीं चलाया गया है। ये मीडिया की तरफ से चलाई गई गुमराह करने वाली खबर है।” शर्मा ने आगे जोड़ा कि 22 माओवादियों को मारे जाने का दावा “बिलकुल झूठा” है और कर्रेगुट्टा ऑपरेशन “किसी रूटीन एंटी-नक्सल ऑपरेशन की तरह” किया गया एक सामान्य नक्सल-विरोधी ऑपरेशन है। 

छत्तीसगढ़ की प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने प्रेसिडेंट दीपक बैज ने शर्मा की तरफ से आए वक्तव्य के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया जिसमे उन्होंने प्रदेश सरकार के आला स्तर पर टूटते हुए संवाद को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की। गृह मंत्री के नाकारेपन और पुलिस की चुप्पी पर प्रश्न उठाते हुए अपने सूत्रों का हवाला देकर बैज ने 22 लाशों को सचमुच में बीजापुर लाए जाने का दावा किया। बैज ने पूछा कि, “सरकार सच को क्यों छुपा रही है? और गृह मंत्री अपने ही मुख्य मंत्री की बात को क्यों काट रहे हैं?”

इसके बाद मारे गए लोगों की पुलिस की तरफ से 14 मई को जारी हुई अधिकारिक सूची ने स्थिति को और भी ज्यादा भ्रामक बना दिया। इस सूची में मारे गए 31 लोगों के नाम, पार्टी में उनकी हैसियत, उनके सिर पर घोषित इनाम की राशि के साथ-साथ उनके फोटों दिए गए थे। 

11 और 12 मई को हिरोली, तोड़का, पालनार, कोंजेड, भूसापारा, कोंडापल्ली, तुमरेल और उड़तमल्ला से मारे गए लोगों के परिवारजन 11 लाशों को ले जाने के लिए मौके पर पहुंचे थे। ये लोग सात लाशों को तो ले गए लेकिन चार लाशे बहुत ज्यादा सड़ जाने या फिर पहचान न हो पाने की वजह से ले जाईं न सकीं। इस रिपोर्ट को लिखने वाली रिपोर्टर को गांव से मारे गए लोगों के परिवारजनों का ये कहते हुए फोन आया कि जिन नामों की लाशों को गांव वाले ले गए हैं वो नाम DRG के द्वारा दी गई सूचना पर आधारित थे लेकिन वो नाम पुलिस की तरफ से साझा की गई सूची से मेल नहीं खा रहे थे। अगर DRG यूनिट द्वारा साझा किए गए ऑपरेशन में मारे गए लोगों के नाम अंतिम फोटो वाली सूची में दर्ज नहीं किए गए तो वो लोग जिनका विवरण अंतिम सूची में नहीं था वो कहा चले गए? क्या वो लोग अभी भी जीवित हैं? या फिर अंतिम सूची में अनुपस्थित इन लोगों को मार दिया गया और जंगल में ही उनकी लाश कहीं छूट गई?

बस्तर की एक जानी-मानी आदिवासी एक्टिविस्ट सोनी सोरी ने कहा कि, “बस्तर के संघर्षग्रस्त क्षेत्र में बुनियादी मानवीय गरिमा को अक्सर गंभीर क्षति पहुंचती है।”

सोरी ने कहा कि, जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत माने जाने माओवादी आंदोलन में शामिल होने के लिए जब जवान पुरुष और महिलाएं अपना घर छोड़ देते हैं तब उनके परिवारों को लगातार उनकी मौत हो जाने का डर लगा रहता है। लेकिन इसके बावजूद लड़ाकों के परिवार वालों को इस बात की आशा रहती है कि वो लड़ाकों का अपने रीति-रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार करके उन्हें, आखिरी विदा देकर, अपने पुरखों के बीच समाधिस्थ कर पायेंगे। अड़मे पुनेम को उनके बेटे के शव के साथ देर रात भैरमगढ़ से भेजते हुए सोरी ने कहा कि, “अब क्या रहेगा उनके पास, टूटी हुईं यादें और चिंताजनक सोच कि उन्होंने किसके शव का अंतिम संस्कार किया।”

लोगों को उनके मृत रिश्तेदारों की लाशों को दिलाने के लिए हॉस्पिटल और थाने के बीच दौड़ लगाते हुए लेखक और मानवाधिकारों की वकालत करने वाली दंतेवाड़ा की बेला भाटिया ने अपना पूरा दिन बिता दिया था। बेला ने कहा कि, “राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार, मानव शव के संरक्षण या उसके निपटारे को सरकार के द्वारा इस तरह से किया जाना चाहिए कि इस प्रकिया में मृत व्यक्ति की मौत के बाद उसके सम्मान के अधिकार और उसके उचित दाह या दफनाने संबंधित संस्कारों का उल्लंघन न हो। लेकिन जिस तरीके का बरताव यहां लाशों के साथ लिया जा रहा है वो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का पूर्ण उल्लंघन है।”

वो लोग जिन्हें रेखांकित नहीं किया गया

पिछले ढाई वर्षों से छत्तीसगढ़ सरकार अपने चल रहे एंटी-माओइस्ट ऑपरेशनों के दौरान होने वाली सुरक्षा बलों की मौतों में आई कमी की बात लगातार कहती रही है। 21-दिन तक चले ऑपरेशन कर्रेगुट्टा के दौरान छत्तीसगढ़ सरकार के इस “न्यूनतम हानि के साथ सफलता” वाले नैरेटिव का भी परीक्षण हो गया। इस पूरे ऑपरेशन के दौरान सुरक्षा बलों के स्वास्थ और उनको लगी चोटों की अस्पष्ट और बहुत बार विरोधाभासी खबरें आती रहीं। 

आधिकारिक बयानों में सुरक्षा बलों को माओवादियों द्वारा लगाए गए IED से लगी चोटों को मामूली चोट बताकर नकार दिया गया।

सुरक्षा बलों को हुए जान-माल के नुकसान को 6 मई को ही, ऑपरेशन के दौरान “COBRA, STF और DRG के कुछ जवानों घायल हुए हैं” कहकर, औपचारिक रूप से एक पुलिस प्रेस रिलीज में पहली बार स्वीकार किया गया। हालांकि घायल जवानों की संख्या का खुलासा नहीं किया गया और बाद में उनकी स्थिति स्थिर होने की बात कह दी गई। 

इस प्रेस रिलीज में जो बातें छोड़ दी गई वो बातें ही असली कहानी बया करती हैं। उदाहरण के तौर पर, पुलिस के उपरोक्त लिखित स्टेटमेंट में उस COBRA जवान का कोई उल्लेख नहीं था जिसका पैर IED पर पड़ गया था, जिसके कारण उसको 4 मई को हवाई जहाज से दिल्ली स्थित AIIMS ले जाना पड़ा था जहां डॉक्टरों ने उसके पैर को काट दिया था। और न ही इस प्रेस रिलीज में उन तमाम मीडिया रिपोर्टों का कोई संदर्भ था जो रिपोर्टे इसी समय STF और DRG के जवानों को लगी बहुत सी चोटों की कहानी बया कर रही थीं। 

14 मई को ही एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान, ऑपरेशन के औपचारिक रूप से खत्म होने पर, वरिष्ठ अधिकारियों ने COBRA, STF और DRG के 18 जवानों के, मुख्यतः IED के चपेट में आने की वजह से, घायल होने की पुष्टि की। इस औपचारिक स्टेटमेंट में इस बात पर जोर दिया गया था कि सभी जवान “अभी खतरे से बाहर हैं और अच्छी तरीके से स्वास्थ लाभ ले रहे हैं।” जब एक पत्रकार ने 18 घायल जवानों को लगी चोटों के प्रकार के बारे में पूछा तो छत्तीसगढ़ के DGP ने कहा कि: “…मेरी तरफ से जवानों को लगी चोटों का विवरण देना उचित नहीं होगा।”

लैंड माइन्स और लहूलुहान शरीर

कर्रेगुट्टा रेंज में स्थित दुर्गमपाड़ नामक पहाड़ का गूगल मैप आधारित एरियल व्यू, 24 अप्रैल की रात को इस पहाड़ पर भीषण मार-धाड़ हुई थी। सोर्स: तरुण कुमार के द्वारा प्रदान की गई गूगल इमेज

कर्रेगुट्टा पहाड़ियां एक 300 किलोमीटर लंबी और 40 किलोमीटर चौड़ी, भोपालपटनम ग्रैन्युलाइट बेल्ट (BGB), नामक भूगर्भीय संरचना में आती हैं। ये पहाड़ियां छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले को तेलंगाना के मुलुगु जिले से विभाजित करती हैं। चूना पत्थरों से बनी इस बेल्ट की बलुआ चट्टानों को मूल्यवान खनिजों और गारनेट और कोरंडम जैसे रत्नों के लिए जाना जाता है। इन सभी चीजों की वजह से इस क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा में वृद्धि होती है। सरीसृप्य जीवों और, डायनासोरों की उड़ने वाली प्रजातियों को मिलाकर, इस क्षेत्र से प्राप्त हुए डायनासोरों के जीवाश्म प्रीहिस्टोरिक समय के जीवन और पृथ्वी के क्रमिक विकास की एक जरूरी बानगी देते हैं। 

भूगर्भीय बातों से इतर कर्रेगुट्टा की इन पहाड़ियां का अपना एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है। पिछली कई पीढ़ियों से आदिवासी इन पहाड़ियों के तलहटी इलाकों में रहते रहे हैं। ये तलहटी इलाके आदिवासियों के जीवन को जंगलों के साथ गूथते हैं। 

लेकिन आस्था और आर्थिक जरूरतों को पूरा करने वाली कर्रेगुट्टा की ये जीवन रेखा भीषण लड़ाई-झगड़े की चपेट में रहती है। यहां पर रहने वाले बहुत से ग्रामीण वर्तमान में अपने कटे हुए अंगों, चोटों और सदमों के साथ रह-बसर कर रहे हैं। इन ग्रामीणों के भविष्य पर अक्सर हिंसा और असुरक्षा के बादल मंडराते रहते हैं। 

तेलंगाना स्थित मुलुगु जिले के लक्ष्मीपुरम नामक इलाके के निवासी सूर्या कहते हैं कि, “ये पहाड़ हमारी जीवन रेखा हैं।” तपती गर्मी के दिनों में तेंदू के पत्तों को बटोरने से लेकर मानसून बीतने के बाद बांस की कटाई तक, ये जंगल बदलते मौसम के अनुसार आमदनी मुहैया कराते हैं, जिससे साल भर कई परिवारों का खर्चा चलता है। पहाड़ों की तलहटी से बांस की कोपलें और जंगल से मिलने वाले दैनिक जरूरतों के अन्य पोषक उत्पाद भी प्राप्त होते हैं। 

कुछ अन्य लोगों जैसे, तेलंगाना के VRK पुरम की वडाबालीजा नामक पिछड़ी जाति से आने वाली सुनीता दर्रा के लिए कर्रेगुट्टा पहाड़ियों का धार्मिक महत्व है। हर मई के महीने में पहाड़ों पर स्थित बेडम मल्लाना मंदिर में ग्रामीण अपने वार्षिक पूजा-पाठ के लिए पहाड़ों की चढ़ाई करते हैं। पहाड़ों की लगभग हर एक चोटी के अपने एक भगवान हैं जिनकी मान्यताओं के इर्द-गिर्द सांस्कृतिक मेलों का आयोजन होता है जिससे लोग अपनी जमीन से जुड़े रहते हैं।

13 जून 2024 को 32 वर्षीय सुनीता दर्रा, अपने गांव के 130 लोगों के साथ कर्रेगुट्टा की चोटी पर बने बेडम मल्लाना मंदिर की वार्षिक तीर्थयात्रा के लिए गई थीं। दो बच्चों की माँ दर्रा को इस तीर्थयात्रा का बहुत लंबे समय से इंतजार था। वो कहती हैं कि, “मैं सिर्फ एक बार अपनी शादी से पहले मंदिर गई थी।”

तीर्थयात्रा के दौरान कहीं खड़े रास्ते पर सुनीता माओवादियों द्वारा सुरक्षा बलों को डराने के लिए लगाए गए IED पर चढ़ गईं और उनका बायां पैर धमाके में उड़ गया। 

उनके पति उनको बेसुध अवस्था में खून बहते हुए 10 किलोमीटर नीचे निकटतम गांव तक ले कर आए। सुनीता के बगल में बैठे व्यक्ति ने कहा कि, “हर कदम आगे बढ़ाते हुए डर महसूस हो रहा था।” जब तक वो लोग पमुनूरु पहुंचे अंधेरा हो चुका था। सुनीता को तेजी के साथ स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया, और उसके बाद वो भद्राचलम हॉस्पिटल पहुंची जहां पर डॉक्टरों ने उनके पैर को घुटने से काट दिया। 

जैसा कहा जाता है कि आस्था खतरे से बड़ी होती है, सुनीता के साथ हुई घटना के बावजूद इस वर्ष भी 30 ग्रामीण तीर्थयात्रा पर गए थे। डरे हुए ग्रामीणों ने तीर्थयात्रियों की संख्या को 30 तक समेट लिया था। सुनीता के बगल में बैठी महिला ने कहा कि, “किस्मत से (इस बार) कोई धमाका नहीं हुआ।” इस महिला ने हाथ जोड़ कर आसमान की तरफ श्रद्धा भाव से देखते हुए कहा कि, “माता ने हमें बचा लिया।”

लेकिन, अनकनागुडेम गांव के एक कोया आदिवासी बोग्गालू नवीन के ऊपर सुनीता के गांव वालों के तरह कोई माता का हाथ नहीं था। 5 जनवरी को जब कर्रेगुट्टा रेंज के वीरभद्रुपुरम गुट्टा नामक भाग से नवीन बांस इकट्ठा कर रहे थे सुनीता की ही तरह IED से हुए धमाके में वो घायल हो गए। 

नवीन कहते हैं कि, “मैं लाइन में आखिरी में खड़ा था, मैंने धमाके की आवाज सुनी और मैं बेहोश हो गया।” नवीन अब लंगड़ाकर चलते हैं। IED के छर्रों के काले निशानों को अभी भी नवीन के पैर पर देखा जा सकता है। जमीन के अंदर छुपी मौत से बचते-बचाते नवीन के दोस्त उनको वापस लेकर आए। भद्राचलम हॉस्पिटल में एक महीना बिताने के बाद डॉक्टरों ने नवीन को 6 महीने आराम करने की सलाह दी। घायल होने की वजह से नवीन ने कहा कि, “इस मौसम का काम उनके हाथ से चला गया।” पेशे से राजमिस्त्री का काम करने वाले नवीन अब ट्राइबल रिलीफ फण्ड के तहत मिलने वाले 25,000 रुपए पर आश्रित हैं। सरकारी ऑफिसों की लेट-लतीफी की वजह से नवीन से जिस 3 लाख रुपए की धनराशि का वादा किया गया था वो अभी तक अटकी पड़ी है।

नवीन के घायल होने के दो महीने बाद उनके ही गांव के बोग्गालू कृष्णा बांस की तलाश में उसी कपटी रास्ते पर जा रहे थे जिसने नवीन को लहूलुहान कर दिया था। अपनी पत्नी और तीन बेटियों के लालन-पालन की आर्थिक जरूरत कृष्णा लिए ताक में बैठे जोखिमों से कहीं ज्यादा बड़ी थी। चूंकि मौसम खत्म ही होने वाला था और उल्लेखित खतरनाक रास्ते के बांस को अगर मानसून के पहले जमा करके उसको बुन कर कुछ बना लिया जाए तो अच्छा पैसा कमाया जा सकता है, गांव के तीन लोगों के साथ कृष्णा ने खतरनाक रास्ते पर 10 किलोमीटर का सफर तय किया। 

और अंततः कृष्णा का पैर भी IED पर आ गया और वो भी अपना बायां पैर पूरी तरह से गवां बैठे। 

मुलुगु के सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस के कार्यालय का आधिकारिक डेटा कहता है कि पिछले दो वर्षों में IED से हुए धमाकों से कुल जमा 6 लोग- चार वर्ष 2024 में और दो वर्ष 2025 में- घायल हो चुके हैं और इन IED धमाकों से तीन लोगों की मौत भी हो चुकी है। 

लेकिन शायद आधिकारिक आंकड़ें हमें पूरी कहानी नहीं बताते हैं। अनकनागुडेम गांव के पास के एक उप-ग्राम में एक किशोर उम्र के लड़के का सामना भी नवीन और कृष्णा की तरह IED से हुआ था, अब ये लड़का अपने भाई-बहन के साथ छुप कर रहता है और लोगों से बात-चीत करने से बचता है। घर की शादी की तैयारी करती हुई एक महिला ने कहा कि, “वो दोनों तरफ के लोगों से डरता है। अगर पुलिस को पता चल गया तो, उसे डर है कि, पुलिस उसे उठा लेगी और अगर माओवादियों को पता चल गया कि (पूरी घटना के बारे में) उसने किसी से बात की है तो, उसको डर है कि, माओवादी उससे बदला लेंगे।” जब इस रिपोर्ट की लेखिका ने इस किशोर से पूछा कि “क्या तुम्हारी तरह यहां पर और भी लोग हैं?” ये लड़का कंधे उचकाकर चलता बना। 

माओवादियों की चेतावनी

कर्रेगुट्टा ऑपरेशन के शुरू होने से दो हफ्ते पहले माओवादियों ने व्हॉट्सएप ग्रुप्स पर तेलुगू भाषा में एक मैसेज प्रसारित किया था जिसमे चेतावनी देते हुए कहा गया था कि “खुद के बचाव” के लिए माओवादियों ने विस्फोटकों को लगा दिया है। इस मैसेज में आगे लिखा था कि, हालांकि पार्टी ने लोगों को विस्फोटकों के बारे में बहुत सारे तरीकों से चेताया है लेकिन पुलिस के द्वारा रुपए-पैसे की लालच में फंसकर पहाड़ों की चोटियों तक पहुंचने के चक्कर बहुत से आदिवासी और गैर-आदिवासी विस्फोटकों के शिकार हो रहे हैं। माओइस्ट पार्टी के वेंकटापुरम-वाजेडू एरिया कमेटी के सेक्रेटरी शांता के दस्तखत के साथ आया उपरोक्त लिखित मैसेज ये कह कर खत्म हो गया कि, “हम जनता से अपील करते हैं कि उनके जाल में फंसकर कर्रेगुट्टा न आए।”

लेकिन माओवादियों की ये औपचारिक चेतावनी आते-आते बहुत देर से आई और इस देरी की अपनी एक कीमत थी। चेतावनी के आने तक न सिर्फ बहुत से लोग अपने जीवन और अंगों को खो चुके थे बल्कि चेतावनी के दो हफ्ते बाद केंद्रीय अर्धसैनिक बलों ने, तेलंगाना और छत्तीसगढ़, दोनों ही तरफ से पहाड़ों को घेर भी लिया।

और इस तरह से कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में 21 दिन तक चले ऑपरेशन की शुरुआत हुई। 

और अंत में

हालांकि 28 मार्च से शुरू करके 4 महीनों में माओवादियों ने शांति वार्ता के लिए 6 पत्र जारी किए थे लेकिन इसके बावजूद कर्रेगुट्टा ऑपरेशन को लांच कर दिया गया। 1 जुलाई को आए, तेलंगाना की कांग्रेस सरकार से अपील करते हुए, सबसे नए पत्र को मिलाकर माओवादियों के पत्रों में वार्ता शुरू करने के लिए सीजफायर करने की अपील की जा रही थी। जब तेलंगाना कांग्रेस प्रेसिडेंट, महेश कुमार गौड़, के द्वारा गृह मंत्री अमित शाह की ये कह कर निंदा की गई कि शाह ने पाकिस्तान के साथ तो सीजफायर कर लिया लेकिन वो अपने आदिवासी नागरिकों के साथ बात-चीत नहीं कर रहे हैं, तो माओवादियों ने गौड़ के स्टेटमेंट का स्वागत भी किया था। 

लेकिन दोनों ही, छत्तीसगढ़ और केंद्र की, सरकारें माओवादियों से हथियार डालने की मांग करती रहीं, और दोनों ही सरकारों ने ऑपरेशनों में ढिलाई बरतने से इनकार कर दिया। पिछले 18 महीनों में 415 से अधिक कथित माओवादियों को मारा जा चुका है। ये माओवादी अधिकांशतः युवा आदिवासी थे। साथ ही इसी समय में अधिकांशतः एक ही समुदाय से आने वाले 39 सुरक्षा बलों की भी जान जा चुकी है। और इतना ही नहीं बस्तर में कथित रूप से पुलिस की सहायता करने के चलते कई सामान्य नागरिकों को भी माओवादियों की तरफ से निशाने पर लिया गया है। जहां इस वर्ष माओवादियों ने 22 नागरिकों को मारा हैं वहीं पिछले साल माओवादियों ने 71 नागरिकों की जान ले ली थी।