चूड़ाचांदपुर: जून के महीने की शुरुआत थी, मणिपुर के चूड़ाचांदपुर जिले में एक आधी बनी इमारत के अंदर दो लोग झुककर लैपटॉप पर काम कर रहे थे। मणिपुर 3 मई से जल रहा था। चूड़ाचांदपुर समेत राज्य के कई हिस्सों में कुकी-ज़ो और मैतेई समुदायों के बीच जातीय हिंसा भड़की हुई थी। म्यांमार की सीमा से लगे इस राज्य में यह दो समुदाय सबसे बड़े जातीय समूहों में से हैं।

चूड़ाचांदपुर और कुछ अन्य पहाड़ी इलाकों में कुकी-ज़ो समुदाय बहुसंख्यक हैं, जबकि मैतेई लोगों का प्रभुत्व राजधानी इम्फाल और आसपास के कुछ कस्बों और ग्रामीण इलाकों में है। राज्य सरकार ने 4 मई को पूरे मणिपुर में इंटरनेट सेवा पर प्रतिबंध लगा दिया था। 

फिर भी, जून में हिंसा के 37वें दिन, जब एक कुकी-ज़ो सिविल सोसाइटी संगठन के नेता मुझे चूड़ाचांदपुर के एक आवासीय इलाके की उस इमारत में ले गए, तो मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि उनके फोन पर इंटरनेट चल रहा था।

उस नेता ने मुझे बताया, "इंटरनेट के लिए हम हैकरों को एक लाख रुपए [1,200 डॉलर] से डेढ़ लाख रुपए [1,800 डॉलर] तक देते हैं। इन कनेक्शनों के लगने से पहले हम 15 से 20 दिनों तक बिना इंटरनेट के थे।"

सरकार ने राज्य मशीनरी के उपयोग के लिए इंटरनेट सेवा को कुछ फोन लाइनों तक सीमित रखा था। हैकरों ने इन लाइनों से जुड़कर इंटरनेट का प्रयोग करने में इस कुकी समूह की मदद की।

लेकिन ऐसा किसलिए?

"ऐसा करना जरूरी था, क्योंकि छात्रों को परीक्षा वगैरह के लिए [ऑनलाइन] फॉर्म भरने थे,” ," उस नेता ने बताया। 

लेकिन इसके अलावा, और महत्वपूर्ण कारण भी थे। “हैकरों की सहायता से [इंटरनेट का उपयोग करने] के पहले, हमने दूसरे राज्यों में रह रहे लोगों को अपने सोशल मीडिया खातों का उपयोग करने की अनुमति दे दी थी। ...लोगों को यह बताने के लिए सोशल मीडिया जरूरी हो गया है कि यहां क्या हो रहा है,” उन्होंने कहा।

जहां एक ओर राज्य में हिंसा हो रही थी, वहीं दोनों समुदायों में सैकड़ों लोग ऐसे भी थे जो एक-दूसरे पर ऑनलाइन वार कर रहे थे और सोशल मीडिया पर अपनी तरफ के नैरेटिव को मजबूत कर रहे थे। इनमें कुकी-ज़ो समुदाय के उपरोक्त नेता और उनके सहगोयियों समेत और लोगों के अलावा मैतेई सुमदाय के लोग भी थे।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने दो महीनों तक सोशल मीडिया का विश्लेषण करके पाया कि इस दौरान एक्स -- जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था -- पर बहुत से नए अकाउंट खोले गए, जिन्होंने अपने-अपने पक्षों से जुड़े विचार रखे। साथ ही, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर भी संघर्ष की इन कहानियों का प्रसार जोर-शोर से हुआ।

कुकी या मैतेई समुदायों से संबंधित होने का दावा करने वाले इन सोशल मीडिया हैंडलों पर पोस्ट्स की बाढ़ सी आ गई, जिनमें सूचनाएं, दुष्प्रचार, नफरत, पीड़ित होने के दावे और समर्थन के अनुरोध सबकी भरमार थी। जो खबरें और मत उनके विचारों के अनुरूप नहीं थे, उन्हें ट्रोल किया गया और पत्रकारों को समर्थक और विरोधी खेमों में बांट दिया गया।

सितंबर के मध्य तक उपलब्ध नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 175 लोगों की मौत हो चुकी थी और 1,118 घायल हुए थे।

मणिपुर ने इससे बड़ी जातीय हिंसाएं देखीं हैं। 1992 से 1997 तक, कुकी और नागा समुदायों के बीच संघर्ष में कथित तौर पर इससे ज्यादा जानें गईं थीं, और इससे अधिक संपत्ति का नुकसान और विनाश हुआ था।

लेकिन हालिया हिंसा इस लिहाज से सबसे अलग है कि भारत में शायद पहली बार सशस्त्र संघर्ष सोशल मीडिया पर भी उसी मजबूती से लड़ा जा रहा है। दोनों समुदायों की ओर से सोशल मीडिया पर दिए गए विवरणों में जमीन पर होने वाली घटनाओं पर बारीकी से नज़र रखी गई और कभी-कभी ऐसी घटनाओं का पहला सबूत दिया जो बाद में सुर्खियां बनीं।

कम से कम दो घटनाएं ऐसी हुईं जिनका उपयोग सोशल मीडिया पर जहर फैलाने में किया गया। पहली घटना दो कुकी-ज़ो महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाए जाने की थी, जिसका एक वीडियो वायरल हुआ; और दूसरी थी दो मैतेई छात्रों की हत्या, जिनकी तस्वीरें भी वायरल हुईं। दोनों ही मामलों में राज्य में विरोध प्रदर्शन होने से स्थिति बिगड़ गई थी।

सोशल मीडिया के इन योद्धाओं ने जो दुष्प्रचार फैलाया है, उससे भी नफरत और बढ़ी है।

उदाहरण के लिए, हिंसा के शुरुआती दिनों में एक महिला के प्लास्टिक में लिपटे शव की तस्वीर वायरल हुई, जिसको लेकर दावा किया गया कि वह एक मैतेई महिला थी जिसका यौन उत्पीड़न किया गया था। बाद में, बूम जैसी फैक्ट-चेकिंग वेबसाइटों ने बताया कि वह शव दिल्ली की एक महिला का था जिसकी हत्या उसके माता-पिता ने की थी।

महीने भर बाद एक दूसरा वीडियो शेयर करके दावा किया गया कि एक ईसाई कुकी महिला पर सशस्त्र नागरिकों ने हमला किया था। बूम ने बाद में पाया कि यह वीडियो म्यांमार से था।

मनगढंत कहानियां

हिंसा के बारे में 'एक्स' पर कैसे कहानियां गढ़ी जा रही हैं और कैसे कुछ नैरेटिव अपने आप ही बन रहे हैं, इसको लेकर दो अलग-अलग अध्ययन किए गए। पहला अध्ययन दिल्ली स्थित नैरेटिव रिसर्च लैब ने किया, और दूसरा मिशिगन विश्वविद्यालय के जोयोजीत पाल और स्वतंत्र शोधकर्ता शेरिल अग्रवाल ने। उन्होंने अपने निष्कर्षों के बारे में रिपोर्टर्स कलेक्टिव को बताया।

अधिकांश मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि संघर्ष 3 मई को अचानक और हिंसा की एक अप्रत्याशित घटना के साथ शुरू हुआ। रिसर्च में पाया गया है कि सोशल मीडिया पर होनेवाली प्रतिक्रिया जमीन पर घटने वाली घटनाओं जितनी ही तेज थी।

हिंसा के शुरुआती दिनों में 100 से अधिक नए अकाउंट बनाए गए।  

3 मई को कुकी बहुल चूड़ाचांदपुर में हिंसा भड़क उठी। इसके बाद राजधानी इम्फाल में कुकी समुदाय के खिलाफ कई दिनों तक व्यापक हिंसा हुई। इसके कारण इम्फाल से कुकी लोगों और चूड़ाचांदपुर और अन्य कुकी-प्रभुत्व वाले क्षेत्रों से मैतेई लोगों का पलायन हुआ और उन्होंने राज्य के दूसरे हिस्सों में शरण ली। हिंसा जल्द ही उन ग्रामीण इलाकों में फैल गई जहां घाटी पहाड़ियों से मिलती है, और कुकी, मैतेई और अन्य समुदाय बिलकुल पास-पास रहते हैं।

हालांकि पिछले कुछ दिनों में मरने वालों की संख्या में कमी आई है, लेकिन बंकर अभी भी वहीं हैं और दोनों तरफ के लोगों को हथियारों का उपयोग करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

पाल और अग्रवाल के शोध में पता चला कि शुरुआत में, कुकी समुदाय के साथ सहानुभूति रखने वाले या उससे जुड़े हैंडल तेजी से बढ़े जिन्होंने सक्रिय और सामूहिक रूप से ट्वीट किए। मैतेई समुदाय से जुड़े हैंडल इस लड़ाई में देर से शामिल हुए, लेकिन जल्दी ही उन्होंने भी रफ़्तार पकड़ ली और सक्रिय रूप से ट्वीट करने लगे। उन्होंने विरोधी विचारों और दुष्प्रचार अभियानों पर आक्रामकता से हमले किए।

कुकी-ज़ो समुदाय के उपरोक्त नेता जो आधी बनी इमारत में बैठकर इंटरनेट का उपयोग कर रहे थे, उन्होंने मुझे एक झलक दी कि मणिपुर के गृहयुद्ध ने कैसे लोगों और दोनों समुदायों के नेताओं प्रेरित किया कि वह दुनिया को "अपनी सच्चाई" वैसे ही बताएं जैसा वह समझते हैं।

नई तरह के योद्धा

यह लड़ाइयां ज्यादातर 'एक्स' पर लड़ी जा रही हैं।

कुकी-ज़ो समुदाय के 33 वर्षीय वकील सियाम फ़ैपी उन लोगों में से हैं जिन्होंने संघर्ष शुरू होने के बाद ट्वीट करना आरंभ किया।

उन्होंने मुझसे कहा, "मैंने यह अकाउंट इस सुझाव पर खोला कि एफबी [फेसबुक] या [अन्य] सोशल मीडिया के मुकाबले ट्विटर पर जागरूकता फैलाना आसान है, खासकर इसलिए क्योंकि सभी राजनेता अन्य सोशल मीडिया पेजों की तुलना में ट्विटर प्लेटफॉर्म/प्रोफाइल का अधिक उपयोग करते हैं."

मई से ही फ़ैपी जैसे सैकड़ों हैंडलों ने किसी न किसी समुदाय की ओर से ट्वीट करना शुरू कर दिया।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने कुकी और मैतेई दोनों पक्षों के नौ-नौ प्रमुख हैंडलों को पहचान कर इसकी जानकारी जुलाई के आखिरी हफ्ते में नैरेटिव रिसर्च लैब को दी।

इन 18 हैंडलों का उपयोग करते हुए, लैब ने 2,722 अन्य हैंडलों की मैपिंग की -- इनमें से 875 हैंडल इन 18 के फॉलोवर्स थे और 1,847 हैंडल उन 875 के फॉलोवर्स थे।

लैब उनके मेटा-डेटा के ज़रिए रुझानों, यानी ट्रेंड्स के बारे में जाना। यह जानकारी डेटा को समझने में मदद करती है।

इन 2,722 हैंडलों में से 455 स्पष्ट रूप से कुकी समुदाय से संबंधित थे और 487 मैतेई समुदाय से।

कुकियों से संबंधित आधे से अधिक हैंडल (51 प्रतिशत) 3 मई को या उसके बाद बनाए गए थे। जबकि मैतेई-संबंधित हैंडलों में से 40 प्रतिशत इस दौरान बनाए गए थे।

बाकी हैंडलों को किस श्रेणी में रखा जाए यह साफ़ नहीं था: 1,733 हैंडल जिनकी संबद्धता का पता नहीं लगाया जा सका, उन्हें "अन्य" के रूप में वर्गीकृत किया गया था; 47 हैंडल ऐसे थे जो या तो 'प्रोटेक्टेड' थे (यानी इनके पोस्ट केवल फॉलोवर्स ही देख सकते थे), बंद हो चुके थे, अधिकारियों (पुलिस और मीडिया आदि) के थे, निलंबित कर दिए गए थे, या रोक दिए गए थे।

'एक्स' सटीक रूप से यह नहीं बताता कि कोई ट्वीट पहली बार कहां से किया गया, इसलिए यह संभव है कि उपरोक्त कुकी नेता और उनके साथी अपवाद थे, जो चूड़ाचांदपुर में रहते हुए हैकरों के ज़रिए इंटरनेट प्रयोग कर रहे थे।

ऐसे भी आरोप लगे हैं कि प्रतिबंध के बावजूद इम्फाल में कुछ सरकार के करीबी लोगों के पास इंटरनेट सेवा उपलब्ध थी।

यह भी हो सकता है कि मणिपुर के लोग बाहर से ट्वीट कर रहे हों, क्योंकि दोनों समुदायों के कई लोग भारत के दूसरे हिस्सों और विदेशों में रहकर पढ़ते और काम करते हैं।

विरोधी हैंडल

हिंसा की शुरुआत से ही इंडीजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम (आईटीएलएफ) की 'एक्स' पर मजबूत उपस्थिति रही है। यह कुकी नेताओं का एक प्रमुख राजनैतिक संघ है, जिसने मणिपुर के मुख्यमंत्री, राज्य की पुलिस और सशस्त्र समूहों सहित मैतेई लोगों के कुछ वर्गों पर कुकियों के नरसंहार का आरोप लगाया है।

उस समय, सोशल मीडिया पर मैतेई समुदाय का राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व करने वाली ऐसी कोई विलक्षण आवाज़ नहीं थी।

आईटीएलएफ ने 4 जून से एक सक्रिय व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से कुकी-ज़ो समुदाय की पीड़ा से जुड़े कई पोस्ट और अपडेट साझा किए, और उन्हें पूरे भारत के कई पत्रकारों के सामने रखा।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को मैतेई समुदाय के राजनैतिक लोगों द्वारा गठित कम से कम एक ऐसे ग्रुप के सबूत मिले हैं। कोकोमी मीडिया नाम का यह ग्रुप जुलाई में सक्रिय हुआ था।

इसे कथित रूप से कोऑर्डिनेटिंग कमेटी ऑन मणिपुर इंटीग्रिटी (कोकोमी) के नेताओं ने शुरू किया था। कोकोमी मैतेई समाज से जुड़े संगठनों का एक समूह है।

नैरेटिव रिसर्च लैब ने कई हैंडलों द्वारा लगातार उपयोग किए जा रहे कुछ सामान्य हैशटैग्स की सूची बनाई। कुकी-ज़ो समूहों द्वारा चलाया जा रहा हैशटैग #SeparateAdministration4Kuki उनकी अलग राज्य की मांग को रेखांकित करता है, जो संघर्ष शुरू होने के बाद से तेज़ हो गई है।

जवाब में मैतेई समुदाय से जुड़े हैंडलों ने कुकियों पर "नार्को-आतंकवाद" का आरोप लगाया और कहा कि वह ऐसे प्रवासी हैं जो बिना किसी दस्तावेज़ के यहां आ बसे, जब म्यांमार के साथ नशीले पदार्थों का व्यापार होता था और कुकी-चिन-ज़ो समुदायों के लोगों वहां से आते थे।

संघर्ष की शुरुआत से ही प्रत्येक समुदाय के सोशल मीडिया लड़ाके इस बात पर ज़ोर देते रहे कि दूसरा समुदाय पूरी तरह राष्ट्रवादी या भारतीय नहीं है।

लामबंदी का पैटर्न

मिशिगन विश्वविद्यालय के पाल और स्वतंत्र शोधकर्ता अग्रवाल ने कहा कि सोशल मीडिया गतिविधि में पहली उछाल 28 अप्रैल के आसपास देखी गई, जब चूड़ाचांदपुर में एक जिम को आग के हवाले किया गया था। इस जिम का उद्घाटन मुख्यमंत्री करने वाले थे।

अगली उछाल 3 मई को देखी गई, जब कई आदिवासी समूहों ने मैतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। एसटी का दर्जा मिलने पर मैतेई समुदाय को भी विशेषाधिकार मिल जाते।

"सबसे पहले, हम देखते हैं कि इंटरनेट सेवाओं के बंद होने के कारण सीधे मणिपुर से आने वाली आवाजें बहुत कम थीं। पहुंच केवल उन्हीं लोगों तक सीमित थी जिनके परिवार मणिपुर में हैं लेकिन वह खुद राज्य के बाहर रह रहे हैं," दोनों शोधकर्ताओं ने बताया।

जैसा कि हम ग्राफ़ में देख सकते हैं, कुकी-ज़ो समुदाय का समर्थन करने वाले हैंडल तेजी से संगठित हुए।

इस सोशल मीडिया युद्ध के शुरुआती दिनों ने संघर्ष की रूपरेखा कैसे तय की, इस बारे में पाल और अग्रवाल ने अपने विश्लेषण 'व्हाट दी अर्ली डेज ऑफ़ अ सोशल मीडिया वॉर टेल अस अबाउट द फ्रेमिंग ऑफ़ कॉन्फ्लिक्ट' में कहा है कि, "हमें यह भी प्रमाण मिलता है कि जब अत्यधिक सक्रिय अकाउंट बनाए गए, तब दोनों पक्षों की ओर से अधिक संगठित कार्रवाई देखने को मिली।"

उदाहरण के लिए, मई के पहले हफ्ते में कुकी-ज़ो समुदाय के समर्थन में लगातार ट्वीट करने वाले 86 नए अकाउंट बनाए गए, जबकि इसी दौरान 24 मैतेई-समर्थक अकाउंट बनाए गए, उन्होंने कहा।

दोनों समुदायों के लोग और उनके समर्थक इन जातीय दंगों के बारे में किस तरह ट्वीट कर रहे हैं, और उनमें क्या अंतर है, इसका अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने उन खातों पर नज़र डाली जो लगातार ट्वीट कर रहे थे: मैतेई समर्थक सेट में 77 अकाउंट थे, जिन्होंने 6,339 मूल ट्वीट और 7,837 रीट्वीट किए थे। जबकि कुकी समर्थक सेट में 308 अकाउंट थे, जिन्होंने 31,462 ट्वीट और 94,909 रीट्वीट किए थे।

"मैतेई समर्थक यूजर्स के मुकाबले, कुकी समर्थकों ने मीडिया खातों से मदद की गुहार अधिक लगाई। इससे दो चीजें सामने आती हैं -- कुकियों ने यूनाइटेड नेशंस और दूसरे मानवाधिकार संगठनों का ध्यान खींचने की कोशिश की, वहीं मैतेई अकाउंट स्पीयरकॉर्प्स [भारतीय सेना की एक टुकड़ी] को मदद के लिए बुला रहे थे," शोधकर्ताओं ने अपने विश्लेषण में लिखा।

यह दोनों समुदायों के रुख के मुताबिक था -- कुकी कह रहे थे कि मैतेई लोग मूलनिवासियों के अधिकारों पर हमला कर रहे हैं, इसलिए वह संयुक्त राष्ट्र से हस्तक्षेप की मांग कर रहे थे। वहीं, मैतेई लोग भारतीय सेना के अर्धसैनिक बल असम राइफल्स पर कुकियों के पक्ष में होने का आरोप लगा रहे थे और इसके बारे में ट्वीट कर रहे थे।

शोधकर्ताओं ने दोनों समुदायों के रुखों को इस बात से भी जोड़ा कि वह राजनैतिक दलों का उल्लेख किस तरह कर रहे थे।

मैतेई समर्थक ज्यादातर ट्वीट्स का झुकाव सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तरफ था, क्योंकि संघर्ष के पहले महीने में भाजपा के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को वह ऐसे व्यक्ति के रूप में देख रहे थे जिसपर वह भरोसा कर सकते थे। "जबकि कुकी समर्थक खातों के ट्वीट प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच अधिक समान रूप से विभाजित थे", उन्होंने कहा।

शोधकर्ताओं ने 1 मई से 5 जून के बीच मणिपुर से संबंधित 2,765,151 ट्वीट्स का विश्लेषण किया और उन्हें एक संगठित गतिविधि के प्रमाण मिले। उनमें से केवल 11.6 प्रतिशत, या 322,094, ट्वीट ओरिजिनल थे।

शोधकर्ताओं ने कहा, "हमने अपने डेटासेट में काफी मात्रा में कॉपी-पेस्ट देखा। 788 ट्वीट ऐसे थे जिनके मूल रूप से बिना छेड़छाड़ किए उन्हें पांच से अधिक बार कॉपी-पेस्ट किया गया था।"

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि कुकी समर्थक खातों के रीट्वीट को अधिक इंप्रेशन मिल रहे थे, यानी 'एक्स' पर मैतेई-समर्थक खातों के मुकाबले कुकी-समर्थक खातों की गतिविधि अधिक संगठित थी।

"यदि आप नैरेटिव को लेकर इस तरह के विवाद या संघर्ष को करीब से देखें, तो आपको इसमें ऐसे अकाउंट भी मिलेंगे जो वास्तविक यूज़र्स के हैं और ऐसे भी मिलेंगे जो सिंथेटिक, या ऑटोमेटेड अकाउंट हैं, जिन्हें बॉट भी कहा जाता है," इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन (आईएफएफ) के नीति निदेशक प्रतीक वाघरे ने कहा। आईएफएफ दिल्ली स्थित गैर-सरकारी संगठन है जो डिजिटल अधिकारों की वकालत करता है।

शोधकर्ता और तकनीकी विशेषज्ञ  रोहिणी लक्षणे ने बताया कि क्यों हिंसा शुरू होने के बाद से इतने सारे अकाउंट बनाए गए: "वहां हो रही घटनाओं की प्रत्यक्ष जानकारी देने के लिए -- ऐसी जानकारी जो किसी और तरीके से उन लोगों तक नहीं पहुंच पाती जिन्हें वह चाहिए थी, या पहुंचती भी तो देर से।"

"लोगों को शांतिपूर्ण या किसी और तरीके से लामबंद करने के लिए, और अंत में एक नैरेटिव बनाने के लिए भी इन नए अकाउंट्स का प्रयोग हो सकता है। यह नैरेटिव अपनी बात बताने या विचार रखने के साथ-साथ, जानबूझकर गलत जानकारी फैलाने का भी हो सकता है," लक्षणे ने कहा।

शोध से पता चलता है कि "दोनों समुदायों से जुड़े कुछ प्रभावशाली लोग बाकियों के लिए संघर्ष की नैतिक रूपरेखा को परिभाषित करने का प्रयास कर रहे हैं", नैरेटिव रिसर्च लैब के सह-संस्थापक सरबजोत ने कहा। संघर्ष के दौरान नैरेटिव गढ़ने के इन "संगठित प्रयासों" का "दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है, इससे नफरत और दुश्मनी पैदा हो सकती है और शांति स्थापित करने के प्रयासों की संभावना कम हो सकती है," उन्होंने कहा।

दोनों अध्ययनों में डेटा एकत्र करने के लिए अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया गया है, उनकी समीक्षा की अवधि और विश्लेषण की विधि अलग-अलग है, इसलिए दोनों के निष्कर्षों को एक साथ नहीं जोड़ा जा सकता है।

डेटा की मानवीय समीक्षा से कई संदिग्ध हैंडलों के उदहारण मिलते हैं जिन्हें दोनों पक्षों ने अपने-अपने नैरेटिव को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया।

उदाहरण के लिए यमखोंगम टौथांग (@YToutheng) नमक यूज़र के अकाउंट को लें। अगस्त से पहले, इसपर क्रिप्टोकरेंसी से संबंधित विज्ञापन पोस्ट किए जाते थे। जबकि 8 अगस्त के बाद, इसने कुकी समुदाय के पक्ष में की जाने वाली टिप्पणियों को दोबारा पोस्ट करना शुरू किया।

जहां एक ओर दोनों समुदायों के लोग, उनके नेता और सशस्त्र समूह जमीन पर लड़ रहे थे, सोशल मीडिया पर छिड़ी जंग भी जटिल होती गई। अच्छी तरह बने वीडियो और ड्रोन फुटेज शेयर की जाने लगी। ड्रोन फुटेज इंस्टाग्राम पर अधिक शेयर की गईं।

सुपरस्प्रेडर

हिंसा के दौरान सोशल मीडिया पर सुपरस्प्रेडिंग, यानी एक जानकारी के बहुत सारे लोगों द्वारा शेयर किए जाने के कम से कम दो उदाहरण सामने आए।

25 सितंबर को दो तस्वीरें वायरल हुईं, जिनमें दो लापता इम्फाल निवासियों -- 20 वर्षीय फिजाम हेमनजीत और 17 वर्षीय हिजाम लिनथोइंगांबी -- को मृत दिखाया गया था।

पहली तस्वीर में लिनथोइनगांबी और हेमनजीत एक-दूसरे के बगल में बैठे नजर आ रहे हैं। आगे की तस्वीर में वह जमीन पर गिरे दिख रहे हैं, जिसका मतलब है कि उनकी मौत हो चुकी है। तस्वीर में हेमनजीत का सिर गायब है।

इस घटना को लेकर मैतेई समुदाय ने 'एक्स' पर कुकी-ज़ो समुदाय के ख़िलाफ़ तीखे पोस्ट लिखे। वहीं कुकियों ने मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपने के सरकार के फैसले की आलोचना की।

कुकी हैंडलों ने दावा किया कि जिन मामलों में कथित तौर पर कुकी-ज़ो समुदाय के लोग मारे गए, उनमें ऐसी "त्वरित" देखने को नहीं मिली। कुछ ने यहां तक सवाल उठाए कि क्या ऐसा कहने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि दोनों की हत्या हुई थी।

सितंबर के अंत में यह तस्वीरें सामने आने के तुरंत बाद इम्फाल में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जिसके कारण राज्य सरकार को इंटरनेट बंद करना पड़ा। पांच महीने के लंबे निलंबन के बाद अभी कुछ दिन पहले ही इंटरनेट सेवा बहाल हुई है।

इससे पहले जुलाई में दो कुकी-ज़ो महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाए जाने के एक वीडियो पर कुकी समुदाय की ओर से इसी तरह की प्रतिक्रिया हुई। कुकी महिलाओं द्वारा कांगपोकपी, चूड़ाचांदपुर और मिजोरम में विशाल रैलियां आयोजित की गईं। हिंसा शुरू होने के बाद से पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए इस घटना की निंदा की, और कहा कि इसने "140 करोड़ भारतीयों का सिर शर्म से झुका दिया है"।

तब, एक्स पर मौजूद कुकी हैंडलों ने एक अलग प्रशासन की मांग नए सिरे उठाई और उनकी पोस्ट्स को सैकड़ों बार शेयर किया गया।

जवाबी हमले

कुकी और मैतेई समुदायों के सबसे लोकप्रिय हैंडलों के संचालकों का कहना था कि उनका मुख्य उद्देश्य है दूसरे पक्ष के नैरेटिव का जवाब देना।

मैंने कुकी पक्ष के प्रति सहानुभूति रखने वाले और कुकी होने का दावा करने वाले तीन हैंडलों के साथ-साथ पांच मैतेई हैंडलों से संपर्क किया, ताकि समझ सकूं कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।

दो कुकी-समर्थक हैंडल और दो मैतेई-समर्थक हैंडल चलाने वाले लोगों ने मुझसे बात की। उनमें से कुछ ने अपनी पहचान गुप्त रखनी चाही। दूसरों ने अपनी पहचान या तो सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर की हुई है, यह वह मुझे अपनी पहचान बताने को राज़ी हो गए।

उनमें से हर एक ने कहा कि उनके समुदाय की आवाज़ को बेहतर ढंग से सुने जाने की जरूरत है। हमारे लिए मुमकिन नहीं था कि हम उनकी कहानियों की पुष्टि कर सकें।

अब निलंबित हो चुके अकाउंट मणिपुरटॉक्स ने अगस्त में इंस्टेंट मैसेजिंग एप्लिकेशन डिस्कॉर्ड पर मुझसे बात की। उन्होंने अपनी पहचान नहीं बताई लेकिन दावा किया कि वह इम्फाल में  रहते हैं।

“मेरा अकाउंट 2010 से सक्रिय है, मैं ख़बरें, व्यंग्य और क्या-क्या नहीं पोस्ट करता हूं," उन्होंने कहा।

उन्होंने बताया कि हिंसा शुरू होने के बाद से उन्होंने इसके बारे में अधिक से अधिक ट्वीट करना शुरू कर दिया।

"शुरुआत में मैं सरकारी अधिकारियों पर हिंसा को न रोक पाने का आरोप लगा रहा था... मुझे सरकार पर गुस्सा आ रहा था क्योंकि ऐसा लग रहा था कि उनके पास सारी खुफिया जानकारी थी लेकिन उन्होंने अभी भी कुछ नहीं किया,'" उन्होंने कहा।

जैसा कि अपेक्षित था, उन्होंने कुकी-समर्थक हैंडलों पर प्रोपेगैंडा फैलाने का आरोप लगाया।

“मैंने देखा कि चीज़ों को एक अलग रंग देकर परोसा जा रहा है। मैंने अपने कुकी भाई-बहनों से कहा कि इसे ठीक करें, लेकिन बाद में मुझे पता चला कि उनका इरादा लड़ाई कम करने का था ही नहीं । बाद में मुझे एहसास हुआ कि वे अलगाववादी एजेंडे से प्रभावित थे। मैंने उन्हें एकतरफा प्रोपेगैंडा शेयर करते देखा। तभी मैंने फैसला किया कि अब मैं बिना हिचके मैतेई समाज का पक्ष भी सामने रखूंगा।”

“अगर एक भी व्यक्ति इसे देखता है तो बहुत है। मुझे कहानी बयां करनी है। पहले, इस हिंसा की शुरुआत में एकतरफा बयानबाजी होती थी। मेरे ट्वीट देखने के बाद लोगों को एहसास हो रहा है कि इसका एक और पहलू भी है,” उन्होंने कहा।

10 अगस्त तक मणिपुर टॉक्स के 11,500 से अधिक फॉलोअर्स हो गए थे। 15 अगस्त को "एक कानूनी मांग के जवाब में" मणिपुर टॉक्स के एक्स अकाउंट पर किसी भी गतिविधि को रोक दिया गया।

एक्स के दिशानिर्देशों के अनुसार, "इसका मतलब है कि अदालत के आदेश जैसी किसी वैध कानूनी मांग के चलते एक्स को संबंधित खाते (जैसे, @username) की पूरी जानकारी विथहोल्ड, यानी रोक लेनी पड़ती है"। आमतौर पर उपयोगकर्ताओं को यह नहीं बताया जाता है कि किसने उनके खाते पर रोक लगाने के लिए कहा है।

कुकी समुदाय के फैपी की भी यही दलील है। उन्होंने कहा, "मेरे 99 प्रतिशत ट्वीट जो मणिपुर में हो रहा है और कुकी-ज़ो समुदाय के सफाए को लेकर जागरूकता फैलाने के बारे में हैं।"

मई में एक्स पर अकाउंट बनाने के बाद से फैपी के 9,200 से अधिक फॉलोअर्स हो गए हैं।

यह अकाउंट न केवल स्थानीय लोगों बल्कि वैश्विक समुदाय का भी समर्थन पाने की कोशिश कर रहे हैं।

"मैं भारत के साथ-साथ दुनिया भर में हर किसी को अपने विचार बताने की कोशिश कर रहा हूं... इंस्टा [इंस्टाग्राम] और एफबी [फेसबुक] के मुकाबले इसकी [एक्स की] पहुंच अधिक है और इसे ज्यादा लोग इस्तेमाल करते हैं," फैपी ने कहा।

इन समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक और राजनैतिक संगठनों में से 'एक्स' पर उपस्थिति दर्ज कराने में आईटीएलएफ सबसे फुर्तीला साबित हुआ।मई 2023 में जब हिंसा शुरू हुई तो इसने एक अकाउंट बनाया और 18 जून तक इसके 5,800 से अधिक फॉलोवर्स हो गए।

जून में जब इसके हैंडल @ITLFMediaCell पर एक "कानूनी मांग के जवाब में" रोक लगा दी गई, तो इसने एक और हैंडल @ITLFMediaCell(A) बनाया, और तीन महीने बीतते-बीतते इसके फॉलोअर्स लगभग दोगुने हो गए।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इस बारे में संगठन के प्रवक्ता गिन्ज़ा वुअलज़ोंग से बात की। "हमने संघर्ष शुरू होने के बाद आईटीएलएफ का अकाउंट बनाया क्योंकि हमारी आवाज़ नहीं सुनी जा रही थी। नैरेटिव पर मैतेई मीडिया का कब्ज़ा था," उन्होंने कहा।

"मणिपुर में इंटरनेट नहीं था। इसलिए मैंने राज्य के बाहर वालंटियर्स से सोशल मीडिया हैंडल शुरू करने के लिए कहा... हम ट्विटर [एक्स] का उपयोग अपनी आवाज उठाने और दूसरे पक्ष के नैरेटिव का जवाब देने के लिए करते हैं," उन्होंने कहा।

इसी तरह, मैतेई हेरिटेज सोसाइटी ने मुझे बताया कि मणिपुर में हिंसा के मद्देनजर वह एक साथ आए। यह संगठन खुद को "समान विचारधारा वाले लोगों का एक समूह" बताता है जो "नैतिक समाचार प्रस्तुत करने और मैतेई लोगों के खिलाफ झूठे नैरेटिव से लड़ने के लिए काम कर रहे हैं"।

इस समूह के जिस सदस्य से मैंने बात की, उनके अनुसार, "मणिपुर की छवि खराब करने और राज्य को विभाजित करने के लिए राष्ट्रीय मीडिया और सोशल मीडिया के कुछ हिस्सों में एक पूर्व नियोजित झूठा नैरेटिव चलाया जा रहा था"।

उन्होंने कहा,"अल्पसंख्यक आदिवासी ईसाई बनाम बहुसंख्यक मैतेई की झूठी कहानी गढ़ने की योजना थी ताकि हिंसा के वास्तविक मुद्दों को छिपाया जा सके: जैसे म्यांमार से अवैध आप्रवासन, पोस्ता की अवैध खेती और नशीली दवाओं का कारोबार और जंगलों में वनों की कटाई/अतिक्रमण आदि।"

दोनों समुदायों के हैंडलों की एक ही कहानी थी: उनके समुदाय के साथ अन्याय हुआ और जो सच्चाई उन्हें पता थी वह भारत और बाकी दुनिया तक नहीं पहुंच रही थी।

इस लेख को लिखे जाने तक दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी की घटनाएं फिलहाल कम हो गई हैं, लेकिन कुकी और मैतेई क्षेत्रों के बीच की "सीमाओं" पर गश्त जारी है। इंटरनेट पर प्रतिबंध केवल आंशिक रूप से हटाया गया है, मोबाइल इंटरनेट अभी भी आधिकारिक तौर पर बंद है। लेकिन इससे दोनों समुदायों के सोशल मीडिया योद्धाओं की बाकी दुनिया के लोगों का समर्थन जीतने की लड़ाई रुकी नहीं है।

यह रिपोर्ट अल जज़ीरा की सहकारिता से प्रस्तुत की गयी है। इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में यहाँ (Al Jazeera) पढ़ सकते है।