नई दिल्ली: देश में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के मामले में हरियाणा दूसरे स्थान पर है। लेकिन राज्य ने उद्योगों को फायदा पहुंचाने के लिए अपने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और नियमों को कमजोर किया, ताकि वह केंद्र सरकार की 'ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस', यानी व्यापर करने में आसानी, की रैंकिंग में शीर्ष पर बना रहे।

आंतरिक दस्तावेजों, पॉलिसी पेपर्स और बोर्ड के अधिकारियों के साथ बातचीत से पता चला है कि राज्य सरकार ने प्रदूषण नियामक संस्था को ही एक तरह से प्रदूषकों की सेवा में लगा दिया, क्योंकि एक शीर्ष अधिकारी की आपत्तियों के बावजूद सरकार ने इसे सेवा का अधिकार अधिनियम (राइट टू सर्विस एक्ट) में शामिल कर लिया।

सरकार ने प्रदूषणकारी उद्योगों को मंजूरी देने के लिए असंभव समय सीमाएं निर्धारित कीं, जिससे उनकी उचित जांच नहीं हो सकी, और सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत समय सीमा को पूरा नहीं करने के लिए कई अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट भी दायर की।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच हुए पत्राचार के अनुसार, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने केंद्र के बिज़नेस रिफॉर्म एक्शन प्लान 2016 के अनुरूप, उद्योगों के पक्ष में उपरोक्त बदलाव किए। इस योजना में औद्योगीकरण को बढ़ाने पर जोर दिया गया था।

राज्य ने नियमों में बदलाव करके प्रदूषणकारी उद्योगों को मंजूरी देने के लिए बोर्ड को आवंटित समयसीमा को काफी कम कर दिया, और क्षेत्र में प्रदूषण को नियंत्रित करने वाली एकमात्र नियामक संस्था के हाथ बांध दिए।

आंतरिक दस्तावेजों से खुलासा हुआ है कि सरकार ने अनुमोदन और जांच का समय 120 दिन से घटाकर 45 दिन कर दिया था, और अब निर्धारित समयसीमा से एक दिन भी अधिक होने पर बोर्ड के अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई कर रही है।

राज्य सरकार के साथ काम करते हुए बोर्ड ने भी बिना उचित जांच के प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को मिली मंजूरी को नवीनीकृत करने के लिए नियमों में बदलाव किया। और, लगभग 3 वर्षों से बोर्ड ने उद्योगों के प्रदूषण स्तर का निरीक्षण करने के लिए अधिकारियों को भेजने के बजाय, उद्योगों ने उनके प्रदूषण और नियमों के अनुपालन की जानकारी दी, उसे स्वीकार कर लिया।

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कामकाज की जांच की और पाया कि एक पैटर्न के आधार पर प्रदूषण-नियंत्रण नियमों को कमजोर किया गया।

सरकारें अर्थव्यवस्था की गति बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, लेकिन पर्यावरण के संरक्षण के लिए बनाए गई नियामक व्यवस्था को अधिकारी विकास की राह में रोड़े की तरह देखते हैं। ऐसी ही एक नियामक एजेंसी है राज्य का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जो राज्य सरकारों के अधीन काम करती है और यह आकलन करती है  कि किसी उद्योग को अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं, उद्योग शुरू होने के बाद उसके द्वारा किए गए प्रदूषण की निगरानी करती है और पर्यावरण संरक्षण कानूनों को लागू करती है। हालांकि इसे अक्सर ही व्यावसायिक गतिविधियों के मार्ग में बाधक माना गया है, लेकिन अब सरकारें उद्योगों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक नियमों को ध्वस्त करके दूसरे छोर पर पहुंच गई हैं, जिससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।

राज्य सरकार ने उद्योगों के समर्थन में जो महत्वपूर्ण निर्णय लिए, उनमें से एक था प्रदूषण नियंत्रण एजेंसी को हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत एक समयबद्ध सेवा-प्रदाता के रूप में वर्गीकृत करना। इससे यह नियामक संस्था कमजोर हुई और इसे अपना काम करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। बोर्ड के अधिकारियों को अब आवेदन को देखने, साइट का दौरा करने, परियोजना के प्रभावों का अध्ययन करने और परियोजना स्थापित करने या संचालन शुरू करने की अनुमति देने पर निर्णय लेने के लिए केवल अधिकतम 30 दिन (आवेदन अधूरा होने की स्थिति में 15 दिन और) मिलते हैं।

पहले से ही कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी से जूझ रहे प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के पास समय और कम हो गया। बोर्ड में लगभग 63% पद खाली पड़े थे। अधिकारियों ने द कलेक्टिव को बताया कि वह हर महीने औसतन 50-60 निरीक्षण, कई बैठकें, मुक़दमे और सैंपलिंग के काम निपटाते हैं। फिर भी कुछ मामलों में देरी हो जाती है।

इस साल के शुरुआती छह महीनों में बोर्ड के एक अधिकारी संदीप (बदला हुआ नाम) पर दो दिन की देरी के लिए हरियाणा सिविल सेवा (दंड और अपील) नियम, 2016 के नियम 8 के तहत चार्जशीट दायर की गई थी। आरोपों के जवाब में उन्होंने कहा कि काम के भारी बोझ के कारण इस मामले पर उनका ध्यान नहीं गया। उन्होंने बताया कि उन्होंने महीने में 60-65 अनिवार्य निरीक्षण किए, कई शिकायत निवारण बैठकें कीं और नदियों/नालों/भूजल और सीवेज उपचार संयंत्रों की मासिक सैंपलिंग का काम भी किया।

अब वह परेशान हैं कि उन्हें फटकार लग सकती है। हालांकि बोर्ड के कर्मचारियों ने द कलेक्टिव को बताया कि विभिन्न कार्यालयों में उनके कई वरिष्ठ अधिकारियों को दंडित किया गया है। उन्होंने कहा कि "उन्हें एक झूठी नियामक प्रणाली द्वारा बलि का बकरा बनाया गया जो पर्यावरण या अपने अधिकारियों के बजाय उद्योगों का पक्ष लेती है"।

[dropcap]सि[/dropcap]तंबर 2014 में, हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने से एक महीने पहले, राज्य अपने प्रदूषण नियंत्रण नियमों में बदलाव पर विचार कर रहा था।

राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अधिकारियों की एक बैठक बुलाई जिसमें प्रदूषणकारी उद्योगों को संचालन की अनुमति देने के लिए "व्यापक और यथार्थवादी" समयसीमा तैयार करने पर चर्चा की गई।

बोर्ड को प्रदूषक उत्सर्जित करने वाली किसी भी परियोजना के लिए मंजूरी देनी होगी -- उद्योग स्थापित करने के लिए 'स्थापना की सहमति' और संचालन शुरू करने के लिए 'संचालन की सहमति'।

सितंबर 2014 में हुई इस बैठक और इसके बाद की बैठकों में बोर्ड की तकनीकी समिति ने सुझाव दिया कि अधिकारियों को पर्यावरण नियमों के तहत 120 दिनों की अधिकतम सीमा के बजाय 65 दिनों में उद्योग स्थापित करने की अनुमति देने पर निर्णय लेना चाहिए। एक बार जब परियोजना को मंजूरी मिल जाती है और वह शुरू होने के लिए तैयार हो जाती है, तो संचालन की अनुमति पर निर्णय 120 के बजाय अगले 85 दिनों में हो जाना चाहिए।

भाजपा के सत्ता में आने के एक साल बाद अक्टूबर 2015 में इन सिफारिशों को हरियाणा में लागू किया गया। चार महीने के भीतर सरकार ने स्थापना के लिए अनुमति देने की समय सीमा को और कम कर दिया।

इससे पहले केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने बिजनेस रिफॉर्म एक्शन प्लान, 2016 जारी किया था, जिसका उद्देश्य था 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' के तहत सुधारों के माध्यम से पूरे भारत में व्यापार के अनुकूल माहौल बनाना।

मंत्रालय ने राज्यों से कहा कि उद्योगों को मंजूरी एक सेवा की तरह दी जाए और जहां जरूरी हो आवेदन, भुगतान, स्थिति की जानकारी और अनुमोदन की प्रक्रिया को ऑनलाइन किया जाए। साथ ही समयसीमा का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों को दंडित करने के लिए एक कानून लाने की भी सिफारिश की गई।

केंद्र के दबाव के बाद, बोर्ड ने मार्च 2016 में 'स्थापना की सहमति' देने की समय सीमा को पांच दिन घटा दिया।

जनवरी 2017 की एक समीक्षा बैठक में, मुख्यमंत्री खट्टर ने "विभागों को निर्देश दिया कि वह 2017 की 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग' में शीर्ष स्थान हासिल करने के लिए ठोस प्रयास करें"।

बैठक में विभागों को "औद्योगिक/उद्यम-संबंधित सेवाओं" को 45 दिनों के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया गया। इसमें प्रारंभिक प्रोसेसिंग के लिए 30 दिन और कंपनी से अतिरिक्त जानकारी की आवश्यकता होने पर और 15 दिन दिए गए।

लेकिन महीनों में कोई काम नहीं हुआ, इसलिए, मुख्यमंत्री कार्यालय ने फिर से हस्तक्षेप किया

24 अक्टूबर 2017 को मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव ने अतिरिक्त मुख्य सचिव (पर्यावरण) को पत्र लिखा। पत्र में कहा गया: माननीय मुख्यमंत्री की इच्छा है कि...हरियाणा सेवा के अधिकार अधिनियम, 2014 के तहत एक अधिसूचना तुरंत जारी की जाए।

मुख्यमंत्री कार्यालय ने मांग की कि प्रदूषण बोर्ड के परमिटों को हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत लाया जाए।

राज्य सरकार के अनुसार, हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम, 2014 लाने का "एकमात्र उद्देश्य था हरियाणा राज्य के तहत विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा दी जा रही सेवाओं की समयबद्ध डिलीवरी के लिए एक प्रभावी ढांचा प्रदान करना"।

मुख्यमंत्री की इच्छा थी कि बोर्ड की अनुमतियों की मॉनिटरिंग राज्य के सेवा कानून के तहत की जाए और अधिकारियों को मंजूरी मांगने वाले उद्योग के आवेदनों पर कार्रवाई करने के लिए केवल 30 दिनों का समय दिया जाए, न कि पर्यावरण कानूनों के तहत 120 दिनों का। सेवा कानून में उन अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए दंडात्मक प्रावधान भी थे जो निर्धारित समय के भीतर अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहते हैं।

सीएमओ की चिट्ठी मिलने के एक दिन बाद, हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक शीर्ष अधिकारी ने बोर्ड को सेवा-प्रदाता के रूप में वर्गीकृत किए जाने की मुखालिफत की। हरियाणा के प्रशासनिक सुधार विभाग की आंतरिक फ़ाइल नोटिंग से पता चलता है कि बोर्ड के मेंबर सेक्रेटरी एस नारायणन ने बोर्ड के अध्यक्ष को लिखा था कि बोर्ड "पर्यावरण मानदंडों की सुरक्षा के लिए" जल और वायु अधिनियम के अनुसार उद्योगों को मंजूरी देता है और इसे सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत "सेवा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए"।

उन्होंने सरकार बताया कि पर्यावरण कानून किसी उद्योग को मंजूरी देने का निर्णय लेने के लिए 120 दिन का समय देते हैं, और कम समयसीमा वाले राज्य के सेवा अधिनियम से ऊपर हैं।

 प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव बताते हैं कि बोर्ड की मंजूरी को सेवा का अधिकार कानून के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए।
सदस्य सचिव का कहना है कि जल अधिनियम/वायु अधिनियम को सेवा का अधिकार अधिनियम की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है।

उन्होंने ने कहा कि इन कानूनी पहलुओं पर पहले विचार किया जा चुका है और राज्य के मुख्य सचिव ने बोर्ड को सेवा का अधिकार अधिनियम से छूट देने का निर्णय लिया था। उन्होंने कहा कि बोर्ड जरूरत पड़ने पर राज्य के कानून एवं विधायी सुधार विभाग से कानूनी राय ले सकता है।

31 अक्टूबर 2017 को विधायी सुधार विभाग ने अपनी राय दी। इसमें कहा गया कि बोर्ड द्वारा दी गई सहमति को "बिना किसी समस्या के हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाया जा सकता है, लेकिन यह संबंधित केंद्रीय अधिनियम/नियमों की सीमा के प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिए"।

चूंकि केंद्रीय अधिनियमों में मंजूरी देने के लिए अधिकारियों द्वारा लिए गए अधिकतम समय को ही समयसीमा के रूप में माना जाता है, इसलिए उस अवधि के भीतर निर्धारित की गई कोई भी समय-सीमा केंद्रीय पर्यावरण कानूनों के खिलाफ नहीं होती। उदाहरण के लिए, जल अधिनियम के तहत "चार महीने की अवधि की समाप्ति पर" मान लिया जाएगा कि मंजूरी मिल गई, यदि इससे पहले आवेदन स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जाता है।

उस दिन सरकार ने सबसे तेज़ गति से निर्णय लिया।

हरियाणा के प्रशासनिक सुधार विभाग ने राज्य के कानून और विधायी विभाग से एक मसौदे पर परामर्श किया, जिसके द्वारा बोर्ड की अनुमतियों को को सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत लाने की घोषणा की जानी थी। प्रशासनिक सुधार विभाग मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करता है, और इसका नेतृत्व मुख्य सचिव करते हैं।

नियमों की अवहेलना करते हुए यह ड्राफ्ट व्हाट्सएप पर कानूनी मामलों पर सलाह देने वाले सरकारी अधिकारी 'एडिशनल लीगल रीमेंबरेंसर' को  भेजा गया, और उस अधिकारी ने टेलीफोन पर मसौदे में सुधार किए। प्रशासनिक सुधार विभाग ने अपने आंतरिक दस्तावेजों में नोट किया है कि चूंकि परिवर्तनों पर फोन पर चर्चा की गई थी, इसलिए मसौदे को कानूनी विभाग को जांच के लिए भेजने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

प्रशासनिक सुधार विभाग सूचित करता है कि अधिसूचना व्हाट्सएप पर  'एडिशनल लीगल रीमेंबरेंसर' को भेजी गई थी और इसे पुनरीक्षण के लिए भेजने की आवश्यकता नहीं है।

उसी दिन उस मसौदे को सरकारी राजपत्र (असाधारण) में प्रकाशित करने के लिए राज्य के मुख्य सचिव और हरियाणा सरकार प्रेस को भी भेज दिया गया।

उसी दिन, विभाग ने एक अधिसूचना जारी कर बोर्ड द्वारा दी गई अनुमतियों को हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम, 2014 के तहत ले आया गया। इसका मतलब था कि नियामक बोर्ड उद्योगों के लिए "सेवा-प्रदाता" बन गया।

जैसा कि मुख्यमंत्री ने चाहा था, इस अधिसूचना में कहा गया कि बोर्ड को 30 दिनों के भीतर मंजूरी देने की सेवा प्रदान करनी होगी।

अगले कुछ महीनों में बोर्ड ने एक आदेश जारी कर नई समयसीमाओं को मंजूरी दे दी। स्थापित करने और संचालित करने के लिए सहमति देने की समय-सीमा को क्रमशः 60 और 85 दिनों से घटाकर 30 दिन कर दिया गया, साथ ही आवेदक उद्योगों द्वारा अधूरी जानकारी प्रदान किए जाने की स्थिति में, अधिकारियों को 15 दिन और दिए गए।

"जैसे ही हमें कोई आवेदन मिलता है तो घड़ी से जंग शुरू हो जाती है। अगर हमें पूरी जानकारी 40वें दिन मिलती है, तो हमारे पास इसे प्रोसेस करने के लिए केवल 5 दिन बचते हैं, क्योंकि हम कुल मिलाकर 45 दिनों से अधिक नहीं ले सकते," बोर्ड के एक कर्मचारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया।

द कलेक्टिव ने बोर्ड, मुख्यमंत्री कार्यालय, प्रशासन सुधार विभाग और हरियाणा सेवा का अधिकार आयोग को विस्तृत प्रश्न भेजे। हमें अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।

[dropcap]सं[/dropcap]दीप की गलती इतनी थी कि उन्होंने प्रदूषण फैलाने वाले एक उद्योग को संचालन की मंजूरी देने में दो दिन की देरी कर दी थी। संचालन की सहमति अनिवार्य 45 दिनों के बजाय 47 दिनों के बाद दी गई थी।

अब वह जानने के लिए बेचैन हैं कि उन्हें लापरवाही का दोषी माना जाता है या नहीं। दोषी पाए जाने का मतलब है कि उनका वेतन रोका जा सकता है, चेतावनी दी जा सकती है, निंदा की जा सकती है, या वेतन वृद्धि या एक निश्चित अवधि के लिए पदोन्नति पर रोक लगाई जा सकती है। उन्हें और भी कई तरह के दंड दिए जा सकते हैं। वह बस एक तकनीकी पेंच से उम्मीद लगाए बैठे हैं: हरियाणा सेवा का अधिकार अधिनियम के अनुसार समय-सीमा में केवल "कार्य दिवस", या "वर्किंग डेज़" को गिना जाता ​​​​है।

उनके मामले में, 47 दिनों के रूप में गिने गए समय में 3 से अधिक आधिकारिक छुट्टियां शामिल हैं।

हालांकि अभी साफ़ नहीं है कि यह तकनीकी विवरण संदीप की मदद करेगा या नहीं, लेकिन बोर्ड के जिन अधिकारियों से हमने बात की, उन्होंने हमें बताया कि हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थिति गंभीर है।

"हमें प्रशासनिक और शिकायत निवारण बैठकों, अदालती सुनवाई, सैंपल कलेक्शन और बहुत सारे दूसरे कामों के साथ-साथ एक महीने में औसतन 50 से 60 अनिवार्य निरीक्षण करने होते हैं। अधिकारियों पर हर समय लगभग 150 से 200 लंबित आवेदनों का बोझ रहता है। उन सभी का निपटारा 30 से 45 दिनों के बीच करना बिल्कुल अव्यावहारिक है," बोर्ड के एक अन्य अधिकारी ने कहा।

नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि 2017-18 के दौरान बोर्ड को उद्योग स्थापित करने की अनुमति के लिए 1,248 आवेदन और उद्योग का संचालन शुरू करने की अनुमति के लिए 12,027 आवेदन प्राप्त हुए।

एक अधिकारी ने कहा कि कर्मचारियों को साल में औसतन 650 से अधिक निरीक्षण करने पड़ते हैं।

वर्तमान में बोर्ड के 24 क्षेत्रीय कार्यालय हैं। एक कर्मचारी ने द कलेक्टिव को बताया कि प्रत्येक रीजनल दफ्तर में एक क्षेत्रीय अधिकारी (आरओ), 3 सहायक पर्यावरण अभियंता (एईई), 1 वैज्ञानिक, 1 कनिष्ठ अभियंता (जेई), 1 अधीक्षक, 1 सहायक, 1 क्लर्क, क्षेत्र सहायक और एक चपरासी होना चाहिए। लेकिन बोर्ड में अभी भी कर्मचारियों की भारी कमी है।

एक कर्मचारी ने बताया, "हमारी शाखा में सिर्फ 1 आरओ, 1 एईई और 1 ड्राइवर है।"

एक अधिकारी जिनके खिलाफ चार्जशीट दायर की गई है, उन्होंने कहा, "मेरे क्षेत्रीय कार्यालय में केवल 3 अधिकारी हैं -- 1 आरओ, 1 एईई और 1 जेई।"

इस साल अप्रैल में, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने राज्य सरकार को फटकार लगाई और उसे खाली पदों को भरने का निर्देश दिया और कहा कि यदि निश्चित समय के भीतर वह ऐसा करने में असमर्थ हो तो और विकल्प तलाश करे।

यह मामला तीन राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों पर नज़र रखने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता वरुण गुलाटी ने दायर किया था। अक्टूबर 2022 में गुलाटी ने हरियाणा बोर्ड से उसके कर्मचारियों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी। उनके जवाब से पता चला कि 481 स्वीकृत पदों में से 303, यानी 62.9% खाली थे।

"समयसीमा का पालन न कर पाना कर्मचारियों की गलती नहीं है। कई पद खाली हैं और फील्ड अधिकारियों को निरीक्षण से लेकर संचालन और स्थापना की सहमति के लिए दायर किए गए सभी दस्तावेजों को देखने से लेकर शिकायतों और कई अदालती मामलों से निपटने तक का सारा काम करना पड़ता है। वे बहुत मानसिक दबाव में काम करते हैं," गुलाटी ने हमें बताया।

"अनुमोदन के मामले में यदि अधिकारी उचित समय लेते हैं तो देरी होती है और उनके खिलाफ चार्जशीट दायर कर दी जाती है। यदि वे तेजी से काम करते हैं तो वे अपने कर्तव्यों से चूक जाते हैं, और फिर से दंड के भागी बनते हैं," गुलाटी ने कहा।

यह मुद्दे नए या अस्थायी नहीं हैं, इनका समाधान वर्षों से नहीं हुआ है।

सितंबर 2020 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट ने इस पर प्रकाश डाला और बोर्ड से "अनिवार्य कार्यों के प्रभावी ढंग से निपटाने के लिए रिक्त पड़े स्वीकृत पदों पर भर्ती करने के लिए कहा, जिनमें से 49% वैज्ञानिक और तकनीकी पद हैं"।

रिपोर्ट में कहा गया है कि देश भर में पहचाने गए 2,747 सकल प्रदूषणकारी उद्योग (जीपीआई) इकाइयों में से 638 हरियाणा में चल रहे हैं। इस मामले में यह उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है, जहां 1,079 ऐसे उद्योग हैं।

लेकिन इस रिपोर्ट और गुलाटी के मामले में रिक्त पदों को भरने के एनजीटी के अप्रैल 2023 के आदेश के बाद भी, कुछ कर्मचारियों ने द कलेक्टिव को बताया कि बोर्ड ने अभी तक ऐसा नहीं किया है। अपनी एक्शन टेकन रिपोर्ट में बोर्ड ने एनजीटी को बताया कि रिक्तियों के लिए प्राप्त आवेदन 'सभी प्रकार से योग्य' नहीं थे, इसलिए प्रतिनियुक्ति के आधार पर पदों को भरने के लिए नए सर्कुलर जारी किए गए हैं।

इसके बजाय, उद्योगों को फायदा पहुंचाने के लिए हरियाणा सरकार विभिन्न नियमों को कमजोर करती रही, जैसे कि उन्हें दी जाने वाली स्वीकृतियों की वैधता की  अवधि बढ़ाना और इन स्वीकृतियों को अपनेआप नवीनीकृत करने की अनुमति देना।

एक ओर जहां बोर्ड अधिकारियों के लिए सहमति देने की समयसीमा को लगातार कम कर रहा था, जिससे अधिकारियों और सहायक कर्मचारियों पर दबाव बढ़ रहा था, वहीं दूसरी ओर, इन सहमतियों की वैधता भी बढ़ा रहा था, जिससे प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को राहत मिल रही थी।

पहले, ऑरेंज श्रेणी के उद्योगों (जिनका प्रदूषण सूचकांक 41 से 59 के बीच है) की संचालन की सहमति 3 साल के लिए वैध थी, जबकि (60 और उससे अधिक के प्रदूषण सूचकांक वाले) रेड श्रेणी के उद्योगों की सहमति 2 साल के लिए वैध थी। इन उद्योगों की प्रारंभिक वैधता की अवधि एक साल थी। हालांकि, अक्टूबर 2015 से यह अवधियां क्रमशः 10 वर्ष और 5 वर्ष तक बढ़ा दी गई हैं। इसका मतलब है कि बहुत अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग भी लंबे समय तक काम कर सकते थे और उनकी मॉनिटरिंग और नियामक जांच का स्तर कम हो गया।

मार्च 2016 में बोर्ड ने एक नया निर्देश जारी किया जिसमें प्रावधान था कि स्व-प्रमाणन और पिछले सीटीओ की शर्तों के अनुपालन की अंडरटेकिंग देने पर, औद्योगिक इकाइयों के सीटीओ का स्वतः नवीनीकरण किया जा सकता है। साल 2019 में एनजीटी द्वारा फटकार लगाए जाने के बाद, बोर्ड ने सीटीओ के स्वतः-नवीनीकरण की नीति में संशोधन कर 'दस्तावेजों के पूर्व-सत्यापन' का प्रावधान भी जोड़ा।

अब हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उद्योगों के एक सेवा प्रदाता के रूप में काम करता है, न कि एक ऐसी एजेंसी के रूप में जो राज्य के औद्योगिक क्षेत्रों में फैले जहरीले प्रदूषण के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह है।

कहानी प्रकाशित होने के बाद, हरियाणा सेवा का अधिकार आयोग ने द कलेक्टिव के सवालों का जवाब दिया। इसमें कहा गया है कि सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत बोर्ड की मंजूरी को अधिसूचित करने के सरकार के प्रयास, जिसमें विफलता के मामले में दंड का प्रावधान है, "प्रशंसनीय" है। आयोग ने कहा कि इस अधिनियम में समयसीमा एक निर्दिष्ट समय सीमा के भीतर सेवाएं प्रदान करने के लिए विभाग की प्रतिबद्धता को दर्शाती है, जो वायु अधिनियम या जल अधिनियम जैसे अन्य अधिनियमों की तुलना में कम हो सकती है।