नई दिल्ली: साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद, नरेंद्र मोदी ने अनौपचारिक रूप से वित्त आयोग के साथबातचीत करके राज्यों के आवंटन में बड़े पैमाने पर कटौती करने की कोशिश की। हालांकिआयोग के प्रमुख ने इसका विरोध किया और मोदी को पीछे हटना पड़ा, यह बात हाल ही में सामने आई है। वित्त आयोग एकस्वतंत्र संवैधानिक निकाय है जो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी तय करता है।

वित्त आयोग के सख्त रवैये के कारण मोदी सरकार को अपनेपहले बजट को 48 घंटोंमें दोबारा तैयार करने के लिए मजबूर होना पड़ा और जनकल्याण कार्यक्रमों की फंडिंगमें कटौती करनी पड़ी, क्योंकिकेंद्रीय करों के एक बड़े हिस्से को अपने पास रखने की उसकी कोशिश सफल नहीं हुई।

उसी समय मोदी ने संसद में झूठा दावा किया कि राज्यों को करों का कितना हिस्सा आवंटित किया जाना चाहिए, इसपर वित्त आयोग की सिफारिशों का वह स्वागत करते हैं।

संघीय बजट के निर्माण के दौरान पर्दे के पीछे हो रही इस वित्तीय सौदेबाजी और दांव-पेंच का खुलासा सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के वर्तमान सीईओ बीवीआर सुब्रमण्यम ने किया है। सुब्रमण्यम तब प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव के रूप में मोदी और वित्त आयोग के अध्यक्ष वाईवी रेड्डी के बीच पिछले दरवाजे से चल रही इस बातचीत के सूत्रधार थे।

शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि वर्तमान भारत सरकार के किसी शीर्ष अधिकारी ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया हो कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम शुरू से ही राज्यों को मिलने वाले आवंटन को कम करने की कोशिश करती रही है। हालांकि अर्थशास्त्री, आलोचकऔर विपक्ष सरकार के एकाउंट्स को संदिग्ध बताते हुए यह शिकायत करते रहे हैं कि केंद्र की प्रवृत्ति राज्यों के वित्त पर कब्ज़ा करने की है, ऐसा पहली बार है कि एक शीर्ष संघीय अधिकारी ने यह स्वीकार किया है कि सरकार के फाइनेंस और एकाउंट्स पूरी तरह सही नहीं हैं।

सुब्रमण्यम पिछले साल गैर-सरकारी थिंक टैंक सेंटर फॉरसोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस द्वारा आयोजित एक सेमिनार में पैनलिस्ट के रूप मेंशामिल हुए थे। इसी दौरान भारत में वित्तीय रिपोर्टिंग पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने उपरोक्त जानकारी साझा की।  

उन्होंने खुलासा किया कि कैसे बजट में “परत दर परत सच्चाई छिपाई जाती है” और “एक हिंडनबर्ग ही [भारत सरकार] के एकाउंट्स कि सच्चाई पता लगाएगा”।

वह अमेरिका-स्थित शॉर्ट-सेलर हिंडनबर्ग रिसर्च का जिक्र कर रहे थे, जिसने पिछले साल अडानी समूह पर अकाउंटिंग में धोखाधड़ी और कई दूसरे आरोप लगाए थे, जिससे समूह की  मार्केट वैल्यू में 132 बिलियन डॉलर की गिरावट आई थी।

सुब्रमण्यम ने यह भी बताया कि कैसे केंद्र सरकार की नीतियां राज्यों के राजस्व को लगातार कम कर रही हैं, और कैसे केंद्र और राज्य अपने खातों को चमकाने के लिए अलग-अलग तरह की तरकीबों का सहारा ले रहे हैं। 

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने एक दशक पुराने बजट और अन्य दस्तावेजों से जुड़े उनके दावों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है।

एक जगह पर सुब्रमण्यम ने सरकार द्वारा वित्तपोषित एक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना में वित्तीय गबन और धोखाधड़ी की जानकारी भी दी, और उसे एक "हास्यास्पद मामला" बताया।

सुर्खियां बटोरने की क्षमता रखने वाले इन खुलासों के बावजूद, सेमिनार के यूट्यूब लाइवस्ट्रीम को केवल 500 से अधिक बार देखा गया है। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को विस्तृत प्रश्नावली भेजे जाने के कुछ ही घंटों बाद, सीएसईपी के यूट्यूब चैनल पर सेमिनार के वीडियो को प्राइवेट कर दिया गया।

वित्त आयोग स्कैंडल

भारत के संविधान के अनुसार, अर्थशास्त्रियों और पब्लिक फाइनेंस विशेषज्ञों से बना एक स्वतंत्र वित्त आयोग यह तय करता है कि केंद्र सरकार को अपने टैक्स कलेक्शन से राज्यों को कितना प्रतिशत पैसा देना चाहिए। इस टैक्स कलेक्शन में 'उपकर' या 'अधिभार' नहीं आते हैं।

चौदहवें वित्त आयोग का गठन 2013 में हुआ था। लगभग उसी समय, 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए प्रचार कर रहे थे और उन्होंने आयोग से राज्यों को केंद्रीय करों का 50% हिस्सा देने के लिए कहा था।

आयोग ने दिसंबर 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें सिफारिश की गई कि राज्यों को केंद्रीय करों का 42% हिस्सा मिलना चाहिए, उस समय तक उन्हें 33% मिलता था। लेकिन तब तक प्रधानमंत्री बन चुके मोदी और उनका वित्त मंत्रालय करों में राज्यों की हिस्सेदारी को 33% ही रखना चाहते थे।

संवैधानिक प्रावधानों के तहत सरकार के पास केवल दो विकल्प होते हैं: या तो वह आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करे या उन्हें अस्वीकार कर एक नया आयोग गठित करे। वह औपचारिक या अनौपचारिक रूप से आयोग के साथ बहस-मुबाहिसा या बातचीत नहीं कर सकती। 

लेकिन केंद्र सरकार ने वित्त आयोग के अध्यक्ष वाईवी रेड्डी से अनौपचारिक बातचीत करके आयोग की सिफारिशों में राज्यों की हिस्सेदारी कम कराने की कोशिश की। सुब्रमण्यम ने कहा कि वह उस बातचीत में एकमात्र अन्य व्यक्ति थे। ऐसा करना संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन था। और यदि सरकार अपने प्रयास में सफल हो जाती, तो वह राज्यों की हिस्सेदारी घटाने में सक्षम होती और इसका दोष आयोग पर आता। 

सुब्रमण्यम ने बताया, [हिस्सेदारी के] आंकड़े को लेकर “डॉ रेड्डी, प्रधानमंत्री और मेरे बीच त्रिपक्षीय चर्चा” हुई।

"वित्त मंत्रालय का कोई [अधिकारी या मंत्री] इसमें शामिल नहीं था," उन्होंने ज़ोर देकर कहा। “क्या यह 42 [प्रतिशत] होना चाहिए या 32 [प्रतिशत] या इसके बीच की कोई संख्या। पिछली संख्या 32 थी,'' उन्होंने तेरहवें वित्त आयोग की अनुशंसा का जिक्र करते हुए कहा।

सुब्रमण्यम ने बताया कि बातचीत दो घंटे तक चली, लेकिन रेड्डी टस से मस नहीं हुए। सुब्रमण्यम ने याद करते हुए कहा कि रेड्डी ने उन्हें "खालिस दक्षिण भारतीय अंग्रेजी" में कहा था: "जाओ और अपने बॉस [प्रधानमंत्री] से कहो कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है"।

सरकार को वित्त आयोग की 42 प्रतिशत की सिफ़ारिश माननी पड़ी। 

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इस जानकारी को 14वें वित्त आयोग का हिस्सा रहे एक अधिकारी से सत्यापित किया, जिसने बताया था कि उस साल रिपोर्ट को स्वीकार करने में देरी हुई थी और संभावित रूप से उसे बदलने कि बातचीत हो रही थी। हमने एक और अर्थशास्त्री से इसकी पुष्टि की, जो उस समय सरकार के लिए काम कर रहे थे और जिन्हें इन घटनाओं की जानकारी थी।

उन्होंने कहा, “सरकार को बता दिया गया था कि उनके पास रिपोर्ट को अस्वीकार करने की शक्ति है लेकिन वह इसे बदलने के लिए नहीं कह सकते हैं। इतिहास में केवल एक ही बार केंद्र सरकार ने वित्त आयोग की मुख्य रिपोर्ट को खारिज किया है, और तब भी रिपोर्ट में दिए गए डिसेंटिंग नोट को अपनाया गया था। सरकार ने खुद का कोई आंकड़ा नहीं दिया था।”

लेकिन संसद में मोदी ने राज्यों की हिस्सेदारी कम करने की अपनी सरकार की असफल कोशिश को छुपा लिया। उन्होंने 27 फरवरी, 2015 को संसद में कहा, “देश को सशक्त बनाने के लिए राज्यों को सशक्त बनाना

होगा…फाइनेंस कमीशन के मैंबर्स के अंदर भी डिस्प्यूट्स हैं। हम उसका फायदा उठा सकते थे, लेकिन हम नहीं उठाना चाहते हैं, क्योंकि तत्वतः हमारा कमिटमेंट है कि राज्य समृद्ध होने चाहिए, राज्य मजबूत होने चाहिए। इसलिए हम 42 पर्सेंट दे रहे हैं।”

“जब आप अमाउंट सुनेंगे तो आप हैरान हो जाएंगे कि इतना सारा रुपया आया है। कुछ राज्यों के पास तो तिजोरी के साईज नहीं हैं, इतने रुपए रखे हैं,” भाजपा सांसदों के ठहाकों और तालियों के बीच प्रधानमंत्री ने आगे कहा।

लेकिन टैक्सों का बड़ा हिस्सा अपने पास रखने की मोदी सरकार की असफल कोशिश का असर अंततः गरीबों पर पड़ा, क्योंकि पूरा बजट दोबारा बनाना पड़ा।

“उस साल का बजट दो दिनों में तैयार किया गया था। दो दिन, क्योंकि यह सिफ़ारिश इतनी देर से मानी गई, और तब तक सब कुछ लिखा जा चुका था... नीति आयोग के एक सम्मेलन कक्ष में, हम चार लोगों ने बैठकर वास्तव में पूरा बजट दोबारा तैयार किया,”  सुब्रमण्यम ने बताया। 

"मुझे अभी भी याद है जब हम कटौती कर रहे थे...महिला और बाल विकास - जो राज्य का विषय है - 36,000 [करोड़] से 18,000 करोड़ कर दो," उन्होंने अपने भाषण में कहा, और बताया कि कैसे उन्होंने और तीन दूसरे अधिकारियों ने केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के लिए आवंटन 36 अरब रुपए ($5.39 बिलियन) से घटाकर 18 अरब रुपए ($2.7 बिलियन) कर दिया था। यह मंत्रालय बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को गर्म, पका हुआ भोजन पहुंचाने जैसी कल्याणकारी योजनाएं चलाता है।

हालांकि उनके द्वारा बताए गए आंकड़े सटीक नहीं थे, लेकिन सरकार ने वास्तव में मार्च 2015 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के बजट में [मंत्रालय के] आवंटन को 21,100 करोड़ रुपए ($ 3.16 बिलियन) को आधे से अधिक घटाकर 10,200 करोड़ रुपए ($ 1.51 बिलियन) कर दिया था, जब उसे राज्यों को अधिक हिस्सेदारी देने का सुझाव स्वीकार करना पड़ा था।

उस साल बजट में पिछले वर्ष की तुलना में शिक्षा के लिए आवंटन में भी 16% की कटौती की गई थी।

सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश

सुब्रमण्यम की यह स्पष्टवादिता और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि, विशेषरूप से मोदी सरकार में, सरकारी अधिकारियों के लिए इस तरह बात करना काफी दुर्लभ है।

'राजकोषीय पारदर्शिता: राजस्व और देनदारियों के खुलासे में कितनी ईमानदार है सरकार', पैनल में इस विषय पर बोलते हुए सुब्रमण्यम ने कहा कि देश के खातों में गहराई से जाने केलिए एक "हिंडनबर्ग" की आवश्यकता होगी। इस बात को हॉल में बैठे लोगों ने दबी हुई हंसी के साथ स्वीकार किया।

उन्होंने कहा, संघीय बजट में "सच्चाई को कई परतों में छिपाने का प्रयास किया जाता है"। "सच्चाई और सही स्थिति का खुलासा वास्तव में" जेपी मॉर्गन और सिटीबैंक जैसे बैंकों के बजट विश्लेषणमें किया जाता है, उन्होंने यह बताते हुए कहा कि कैसे विदेशी बैंक और निवेशक भारत सरकार के अकाउंट्स के विश्लेषण में घरेलू विश्लेषकों से अधिक ईमानदार हैं।

सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र और राज्यों के बजट अविश्वसनीय हैं क्योंकि दोनों स्तरों पर सरकारें कर्ज के पैमाने का खुलासा करने से बचने के लिए अकाउंटिंग तरकीबों और कभी-कभी स्पष्ट धोखाधड़ी का उपयोग कर रही हैं।

किसी सरकार के राजकोषीय घाटे में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों की प्रमुख दिलचस्पी रहती है -- यानि सरकार करों और अन्यराजस्व और कर्ज के माध्यम से जो कमाती है, उससे कितना अधिक खर्च कर रही है। दूसरे शब्दों में, अपने संसाधनों से अधिक खर्च करना। यदि राजकोषीय घाटा अधिक हो तो निवेशक घबराकर पीछे हट जाते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था और नागरिक जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

इसलिए, सरकारें अकाउंटिंग तरकीबें आजमा कर ऐसे कर्ज के ज़रिए अपने खर्च पूरे करती हैं जिन्हें बजट दस्तावेजों से बाहर रखा जा सकता है। इसे 'ऑफ-बजट बॉरोइंग' के रूप में जाना जाता है। 

अतीत में हर तरह की भारतीय सरकारों को ऐसा करने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी है। सीधे शब्दों में कहें तो यह ऐसे कर्ज हैं जो सरकारी खातों में प्रतिबिंबित नहीं होते हैं, हालांकि अंततः सरकार को ही इन्हें चुकाना होता है और जो आमतौर पर सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों द्वारा लिए जाते हैं।

वित्तीय वर्ष 2019-20 के बजट में, केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि आगे चलकर वह ऐसे सभी ऑफ-बजट कर्जों का खुलासा करेगी। इस घोषणा से पहले पंद्रहवें वित्त आयोग ने ऐसे कर्ज लेनेके लिए सरकार की आलोचना की थी।

सरकार ने निश्चित रूप से पहले की तुलना में [इन कर्जों का] बेहतर खुलासा किया, लेकिन जैसा कि सुब्रमण्यम ने स्वीकार किया, वह भी पर्याप्त नहीं था।

अपने भाषण में बजटेत्तर संसाधनों पर सरकार के बयान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “उन्होंने केवल एक हिस्से का खुलासा किया है। कर्ज कब लिया गया, राशि कितनी है, कर्ज की समय सीमा, ब्याज दर, आदि कुछ भी पता नहीं है।”

केंद्र सरकार की आमदनी और खर्चों पर देश के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने 2022 की एक रिपोर्ट में इनमें से कुछ कमियों को उजागर किया। उदाहरण के लिए, विभिन्न सरकारी स्वामित्व वाली संस्थाओं द्वारा जुटाए गए 1.69 लाख करोड़ रुपए ($22.7 बिलियन) से अधिक का खुलासा नहीं किया, जो कि बजटेत्तर संसाधनों पर बजट विवरण का हिस्सा होना चाहिए था।

सुब्रमण्यम ने भूतपूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य में सरकार द्वारा वित्तपोषित एक इंफ्रास्ट्रक्चर  परियोजना में वित्तीय हेरफेर के मामले की भी चर्चा की, जब राज्य का नियंत्रण सीधे केंद्र की भाजपा सरकार के हाथों में था। 

उन्होंने कहा, "हमारे पास एक अजीब मामला आया", और बताया कि कैसे जम्मू-कश्मीर प्रशासन एक "फर्जी यूसी" जमा की थी। यूसी से उनका तात्पर्य यूटिलाईज़ेशन सर्टिफिकेटसे था, यह एक आधिकारिक दस्तावेज है जो यह प्रमाणित करता है कि वित्त का उपयोग उसी उद्देश्य के लिए किया गया जिसके लिए वह वितरित किया गया था। उस समय राज्य का नियंत्रण सीधा भाजपा की केंद्र सरकार के पास था।

केंद्र सरकार इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए राज्यों को किश्तों में धन भेजती है। हर अगली किश्त के लिए पैसा तब जारी किया जाता है जब राज्य यह प्रमाणपत्र भेजता है कि उसने पिछली किश्त का उपयोग सही उद्देश्यों के लिए किया है। 

“दूसरी किस्त आ गई। जिस ठेकेदार ने पहली किस्त ले ली, किसी को नहीं पता था कि उसे भुगतान कैसे करना है।क्योंकि पहली किस्त तकनीकी रूप से खर्च हो चुकी है और दूसरी आ चुकी है,” उन्होंने कहा। 

दूसरे शब्दों में कहें तो फर्जी प्रमाणपत्र के आधार पर केंद्र सरकार ने दूसरी किश्त भेज दी। लेकिन चूंकि जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने पहली किश्त का दुरुपयोग किया था, वह ठेकेदार को आंशिक भुगतान करने में असमर्थ थी।

उपकर और अधिभार

मोदी सरकार ने जब देखा कि वह वित्त आयोग की रिपोर्ट बदलवाकर राज्य की हिस्सेदारी कम नहीं कर सकती है, तो उसने एक ऐसी तरकीब निकाली जिसका उपयोग वह आज भी कर रही है। केंद्र ने उपकर (सेस) और अधिभार (सरचार्ज) लेना शुरू कर दिया। नियमों के अनुसार, राज्य उपकर और अधिभार से राजस्व पाने के हकदार नहीं हैं। इस प्रक्रिया को राज्य सरकारों के साथ अन्याय माना जाता है।

"फंड या राजस्व बढ़ाने के लिए उपकर और अधिभार का उपयोग बढ़ रहा है," सुब्रमण्यमने अपने भाषण में कहा।

आंकड़ों से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी सरकार में एकत्र किए गए उपकर और अधिभार की मात्रा 2015 से लगातार बढ़ी है।

स्रोत: पंद्रहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट और संसद में उठाए गए प्रश्नों से प्राप्त डेटा

2015 से 2023 के बीच, केंद्र सरकार का उपकर और अधिभारसंग्रह सकल कर राजस्व के 13.49% से बढ़कर कर 17.36% हो गया। यह अनुपात 2021 में अपने चरम पर पहुंच गया, जब सेस और सरचार्ज संग्रह देश के सकल कर राजस्व का 20.48%हो गया।

जबकि 2011-12 में केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किए गए कुल करों में उपकर और ]अधिभार का हिस्सा 8.16% था। 2017-18 से 2021-22 के बीच, केंद्र सरकार द्वारा उपकर और अधिभार से एकत्र किया गया राजस्व दोगुने से अधिक हो गया, जो 2.66 लाख करोड़ रुपए (37.65 बिलियन अमेरिकी डॉलर) से 4.99 लाख करोड़ रुपए (61.13 बिलियन अमेरिकी डॉलर) हो गया।

स्वतंत्र थिंकटैंक सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी की मालिनी चक्रवर्ती ने भाजपा सरकार की उन तरकीबों के बारे में लिखा है जिनकी मदद से उसने राज्यों का हिस्सा कम करके अपना राजस्व बढ़ाया: “2017-18 के बजट में जब केंद्र ने 500,000 रुपए ($7,078) तक की आय पर टैक्स की दर को 10 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत किया, तो उससे होने वही राजस्व हानि को पूरा करने के लिए 50 लाख रूपए ($70,078) से ऊपर की आय पर अधिभार लगा दिया। इसी तरह, 2018-19 के बजट में जहां पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9 रुपए प्रति लीटर कम किया गया, वहीं सड़क उपकर में इतनी ही वृद्धि कर दी गई”।

उपकर और अधिभार में वृद्धि का जिक्र करते हुए सुब्रमण्यमने कहा, "तो, अगर मामला ऐसा है और यह आय बांटी नहीं जा सकती है, तो राज्यों को टैक्सेशन में अपनी स्वायत्तता खोने की चिंता बनी रहेगी"।

एक और तरीका जिसके माध्यम से मोदी सरकार ने राज्य के कर संसाधनों को नष्ट किया वह था वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जो वर्षों की राजनैति कबहस के बाद जुलाई 2017 में लाया गया था। इसका उद्देश्य अनेक स्थानीय करों की जगह राष्ट्रीय करों को लाकर एक सिंगल मार्केट बनाना था। लेकिन सुब्रमण्यम ने कहा "राज्यों का राजस्व तेजी से कम किया जा रहा है"। विपक्ष-शासित कई राज्यों की सरकारें पहले ऐसी ही चिंता व्यक्त कर चुकी हैं।

“और मुझे लगता है कि जीएसटी के बाद उनके पास किसी तीसरे पक्षकी मदद के बिना स्वतंत्र रूप से धन जुटाने के रास्ते भी नहीं बचे हैं।” फिर भी, उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि जीएसटी “सफल” रहा है।

हाल में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि जीएसटी के बाद राज्यों का टैक्स रेवेन्यू जीएसटी से पहले की अवधि की तुलना में गिरा है। 

नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के शोधकर्ताओं ने जनवरी 2023 के एक पेपर में जीएसटी के पहले और बाद की अवधि में 18 राज्यों के राजस्व का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि यदि राज्य-स्तरीय करों से उत्पन्न होने वाले राजस्व को राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में देखा जाए तो 18 में से 17 राज्यों के राजस्व में गिरावट आई है।

स्रोत: नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक फाइनेंस

राज्यों की वित्तीय स्वतंत्रता प्रतिबंधित करने के केंद्र सरकार के निरंतर प्रयास तब भी दिखाई दिए जब उसने 2017 में 15वें वित्त आयोग का गठन किया और उसे ऐसी सिफारिशें करने का काम सौंपा जो राज्यों को 'लोकलुभावन नीतियां' अपनाने से रोके।

“बात ऐसी है कि यह सामाजिक निर्णय हैं। कोई कह सकता है कि अमेरिका में मेडिकेयर और मेडिकेड मुफ़्तखोरी हैं। क्या आप जाकर उन्हें समाप्त कर सकते हैं?" उन्होंने पूछा। “मुझे लगता है कि ये सामाजिक निर्णय हैं, ये आर्थिक निर्णय नहीं हैं। अर्थशास्त्र केवल यही तय करेगा कि आप इसके लिए पैसे दे सकते हैं या नहीं। वह इन निर्णयों को सही या गलत नहीं ठहरा सकता। यह राजनैतिक निर्णय हैं,” उन्होंने कहा।

यह रिपोर्ट अल जज़ीरा के साथ सहप्रकाशित की गई है। अंग्रेज़ी में इस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।