कौन था जिसने क्या था जिसने मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी

भय और वेदना के मंजर तले अपने गुस्से से प्रेरणा पाते हुए हम इस ख़बर को लिख रहे हैं।
मुकेश चंद्राकार छत्तीसगढ़ के बस्तर से आने वाले एक पत्रकार थे। मुकेश की हत्या के बाद इस साल जब 3 जनवरी को उनके शव की बरामदगी हुई तब उनकी उम्र 32 वर्ष थी। मुकेश के लिवर को चार टुकड़ों में फाड़ दिया गया था, उनकी पांच पसलियां टूटी हुईं थीं, सिर पर 15 गहरी चोटों के साथ मुकेश का हृदय लहू- लुहान था, उनकी गर्दन टूटी हुई थी और हाथ के दो हिस्से कर दिए गए थे।
मुकेश हमारे दोस्त थे। बस्तर से पत्रकारिता करने वाले मुकेश हमारे साथी पत्रकार थे।
मुकेश को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने एक दोयम दर्जे की सड़क के ऊपर ख़बर प्रकाशित की थी।
हमने अपनी तहक़ीक़ात इस बात को लेकर शुरू नहीं की कि आख़िर मुकेश को किसने मारा बल्कि हमारी तहक़ीक़ात का उद्देश्य उन परिस्थितियों पर से पर्दा उठाना था जिनके कारण मुकेश को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। पड़ताल से हमें पता चला कि इस मामले के तार उस बस्तर से जुड़े हुए हैं जिससे मुकेश को बेहद प्यार था और जिस क्षेत्र के विषयों पर मुकेश रिपोर्टिंग किया करते थे। हम आशा करते हैं कि मुकेश को ये ख़बर पसंद आएगी। यदि मुकेश जीवित होते तो इस ख़बर को वो हमसे कही ज़्यादा अच्छे से कह पाते।
ये ख़बर मौत के घाट उतार दिए गए साथी, मुकेश चंद्राकार, को हमारी श्रद्धांजलि है।
पहली किश्त
दो अलहदा रास्ते
आर्थिक तंगी और हत्यारी जंग से पार पाने के लिए छत्तीसगढ़ के एक ही गांव से अपने- अपने सफ़र की शुरुआत करने वाले मुकेश और सुरेश ने कैसे दो बिलकुल अलग- अलग रास्तों को चुना।
अपनी भंवराती हुई आवाज़ में मुकेश अक्सर अपने यूट्यूब चैनल के 200,000 सब्स्क्राइबरों को चेताते हुए कहते थे कि “अब आप बस्तर जंक्शन देखना शुरू कर चुके हैं।”
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर नाम के इलाक़े को क्रमश चार बातों- हथियारधारी माओंवादियों की भारत सरकार से दशकों से चली आ रही जंग, पतझड़ी जंगलों, कोयला व लोहे जैसे खनिजों और अपने आदिवासियों- के लिए जाना जाता है।
बस्तर के लोगों के दर्द, पीड़ा, कठिनाइओं और ख़ुशियों से संबंधित कहानियों को दिल्ली स्थित बड़े- बड़े ख़बरिया चैनलों के लिए दस सालों तक कहने के साथ बहुत प्रभावशाली रूप से यूट्यूब जर्नलिस्ट के तौर पर मुकेश यही काम अपने चैनल बस्तर जंक्शन के लिए किया करते थे। अपनी बेजोड़ युवा शैली में प्राथमिक रूप से बीजापुर जिले से नए- नए विषयों को मांजते हुए मुकेश हर दूसरे दिन एक नई कहानी लेकर आते थे।
न्यूज़18 के संपादक के तौर पर तीन सालों तक मुकेश के काम को करीब से देखने वाले प्रकाश चंद्र होता कहते हैं कि “मुकेश ऐसे पत्रकार थे कि बहुत पढ़े- लिखे और प्रशिक्षित पत्रकार भी उनसे खार खाते थे।” पत्रकारिता करने का जो मानक मुकेश ने अपनी पत्रकारिता से स्थापित किया था उसको पैराशूट पत्रकार के रूप में तात्कालिक तौर पर मौक़े पर पहुंचकर नहीं बल्कि हथियारबंद जंग के बीच ख़ुद रह-बसर करके ही हासिल किया जा सकता है। मई 2021 से मुकेश के द्वारा प्रसारित किए गए 486 वीडियोज़ को करीब साढ़े तीन करोड़ दर्शकों ने देखा है।
होता कहते हैं कि “मुकेश के काम में अड़ंगा लगा पाना बहुत मुश्किल का काम था। तथ्यों और सच को सबसे पहले उजागर करने के लिए रिपोर्टिंग करने के अपने निर्धारित इलाक़ों को फांदकर मुकेश किसी भी इलाक़े में पहुंच जाया करते थे।”
होता अपनी याददाश्त पर से जाला हटाते हुए कहते है कि “जैसा कि एक अच्छे पत्रकार को होना चाहिए मुकेश एक उमंगी आदमी थे। अन्य वजहों के साथ- साथ ये उमंग ही वो कारण थी जिसके चलते उन्होंने बस्तर जंक्शन के नाम से अपना चैनल शुरू किया था। बस्तर की जंग पर रिपोर्टिंग करने के मामले में मुकेश ने मुख्यधारा की सारी मीडिया को पीछे छोड़ दिया था।”
अपने यूट्यूब चैनल के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मुकेश ने लिखा था कि
"बेबाकी से बस्तरियों की बात दुनिया से होगी।"
मुकेश की रिपोर्टिंग शानदार हो सकती है लेकिन इस शानदार रिपोर्टिंग को करने के लिए मुकेश को भीषण समस्याएं झेलते हुए अपनी ज़िंदगी से समझौता भी करना पड़ता था। बस्तर की जंग के ऊपर की गई मुकेश की रिपोर्टिंग में अड़ंगा लगाने के लिए दोनों ही, पुलिस और प्रतिबंधित हथियाबंद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी), मुकेश के ऊपर बराबर दबाव बनाते थे। जब तक मुकेश की हत्या नहीं की गई दोनों तरफ़ से आते हुए इस दबाव पर वो बहुत कुशलता पूर्वक पार पाते रहे।
बाद में मुकेश की मौत पर शोक व्यक्त करते हुए उनकी हत्या की दोनों, पुलिस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी), ने ठीक उसी एक स्वर में निंदा की जिस एक तरीके से कभी ये दोनों मुकेश के ऊपर एक जैसा दबाव बनाया करते थे।
4 जनवरी को मुकेश की हत्या से संबंधित जांच में प्राप्त हुई प्राथमिक जानकारियों को एक पत्रकारों से ठसाठस भरे कमरे में साझा करते हुए बस्तर रेंज के इंस्पेक्टर जेनरल ऑफ़ पुलिस पी. सुंदरराज ने कहा कि ‘मेरे लिए ये बहुत दुख की बात है कि मुकेश की अनुपस्थिति में उनके बारे में बात करने के लिए मुझे आपके सामने आना पड़ रहा है।”
ठीक पुलिस की ही तरह 6 जनवरी को जारी हुए अपने स्टेटमेंट में प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी) ने कहा कि “हम मुकेश चंद्राकर की नृशंस हत्या कि निंदा करते हैं…आदिवासी इलाक़े में पैदा हुए और यही पर पले- बढ़े मुकेश ने क्षेत्रीय संवाददाता के रूप में अपनी पहचान बनाई। बहुत ज़िम्मेदारी के साथ मुकेश ने जनता के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रकाश डाला।’’
इन बयानों से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे मुकेश की हत्या कोई ऐसी आफ़त लेकर आई थी जिसका सामना मुकेश की मौत पर बयान देने वाले नहीं करना चाहते थे। बात ये थी की विकास के नाम पर इलाकें में बनी नई सड़कों का विषय मुकेश की हत्या के बाद प्रकाश में आ गया था।
मुकेश चंद्राकर का जन्म बासागुडा नामक गांव के एक ग़रीब परिवार में हुआ था। जब मुकेश की उम्र एक वर्ष से भी कम थी स्ट्रोक की वजह से एक कोऑपरेटिव बैंक में काम करने वाले मुकेश के पिता का निधन हो गया था। और बाद में जब मुकेश 21 वर्ष की आयु तक पहुंचे, आंगनबाड़ी कर्मचारी के रूप में काम करने वाली उनकी माँ कैंसर के कारण चल बसी। अपने से पांच साल बड़े भाई, युकेश, को मुकेश दद्दा कह कर बुलाया करते थे। माता- पिता की मौत के बाद युकेश ही मुकेश के अभिभावक और रोल मॉडल बन गए।
विषाद में बिलखने और प्रसन्नचित्त तरीके से बीती बातों को याद करने की दो अवस्थाओं के बीच हिचकोले खाते हुए युकेश अपनी माँ की मौत से पहले का जीवन याद करते हैं। आंगनबड़ी कर्मचारी के रूप में काम करने के लिए उनकी माँ बासागुडा से आवापल्ली 16 किलोमीटर दूर जाया करतीं थीं। अपनी कम तनख्वाह को बढ़ाने के लिए घर से 12 किलोमीटर दूर तर्रेम गांव में लगने वाली साप्ताहिक बाज़ार में वो महुआ से बनी हुई शराब भी बेचा करतीं थीं। कभी 10-15 दिन तो कभी- कभी पूरे महीने भर उनका रहना घर से बाहर ही होता था। मुकेश और युकेश को उनको पीछे घर पर ही छोड़ कर जाना पड़ता था। दोनों भाई अपने पड़ोसियों के साथ रहते हुए अपना ध्यान ख़ुद ही रखते थे। और कभी- कभी मुकेश- युकेश की माँ अपने बच्चों को अपने साथ भी ले जाया करतीं थीं।
जब जंगल में महुआ के फूल खिलते थे तो इन फूलों को बीनने में युकेश अपनी माँ की मदद किया करते थे, और इसी बीच मुकेश भी उनके पीछे हो लेते थे। युकेश कहते हैं कि “मुकेश आस- पास मौजूद लगभग हर चीज़ के बारे में सवाल पूछा करता था और मेरे पास अक्सर उन सवालों का कोई जवाब नहीं होता था।”
मुकेश- युकेश की माँ अपने दोनों बच्चों को पढ़ाई कराने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थीं। लेकिन बासागुडा में मुकेश की प्राथमिक शिक्षा सही से नहीं हो पायी। इसलिए युकेश ने दूर स्थित दंतेवाड़ा में मुकेश की सेकेंडरी एजुकेशन कराने के लिए उसको वहां भेजने के लिए अपनी माँ को मना लिया। और चूंकि उस समय तक युकेश की माँ अपनी काम करने की जगह, आवापल्ली, के नज़दीक रहने लगीं थीं युकेश पढ़ाई करने के लिए 200 किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर, जगदलपुर, चले गयें।
मुकेश और युकेश का इलाक़ा जब माओवादियों से निपटने के लिए आदिवासियों के, सरकार समर्थित, सलवा जुडूम नामक अवैध निगरानी टुकड़ी के हिंसात्मक उभार को झेल रहा था, ये दोनों भाई अपने घर से दूर थे। दोनों भाइयों की माँ भी बासागुडा स्थित अपेक्षाकृत सुरक्षित, सलवा जुडूम कैम्प, में चली गईं थीं। उस समय जो लोग कैम्प में नहीं रहा करते थे सरकार की मदद से बनाई गई निगरानी टुकड़ी के द्वारा उनकों निशाने पर ले लिया जाता था। ये वही समय था जब मुकेश की माँ कैंसर की चपेट में भी आ चुकीं थीं। वर्ष 2008 में जब मुकेश आवापल्ली वापस लौटे तो उसी समय उनका भाई, युकेश, एक मामले में फंस गया और लगभग दो साल के लिए उसको जेल हो गई। एक रगड़ खाई एल्युमीनियम की प्लेट को किचन से लाकर उसकी तरफ़ घूरते हुए युकेश ने हमसे कहा कि जब मैं सलाखों के पीछे था “आप अंदाज़ा लगा सकते हैं की वो समय मेरे छोटे भाई के लिए कैसा रहा होगा।” ये बात कहते हुए युकेश जिस टूटी हुई प्लेट को घूर रहें थे उस प्लेट में दोनों भाई बचपन मे एक साथ खाना खाया करते थे।
दोनों भाइयों की माँ का वर्ष 2014 में देहांत हो गया। चूंकि ये बात जगजाहिर थी कि अपनी माँ के इलाज के खर्चे की वजह से दोनों भाई कर्ज में डूब चुके हैं, बहुत से क्षेत्रीय पत्रकारों ने उनकी मदद के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया। क्योंकि युकेश की पढ़ने- लिखने में हमेशा से रुचि थी, दंडकारण्य समाचार नामक एक क्षेत्रीय न्यूज़ ऑर्गेनाइजेशन से जुड़कर वो पत्रकारिता में आ गए। और एक बार फिर से मुकेश भाई युकेश के पीछे हो लिया। इस प्रकार महुआ के फूल बीनने से लेकर युकेश ने लिखने, लोगों से मिलने और यहां तक कि बहुत बार सरकारी मुलाज़िमों से सवाल पूछने तक का सफ़र तय किया। ये सब देख के मुकेश अचरज में था। अब मुकेश भी कलम और कैमरा उठाने के लिए तैयार था।
युकेश ने हंसते हुए कहा कि “जब मुकेश ने एक बार पेन और और माइक संभाला उसके बाद उसने थमने का नाम नहीं लिया।” युकेश की अपेक्षा उनका छोटा भाई ज़िंदगी और पत्रकारिता के और भी पैने रास्तों पर निकलने और सफ़ल होने के लिए तैयार था।
देखते- देखते बस्तर में चल रही जंग के बीचो- बीच मुकेश की आवाज़ मुखर होती चली गई। किसी दिन सरकार और माओवादी मुकेश की रिपोर्टिंग की वजह से उससे खार खाते थे तो किसी दिन यही लोग मुकेश को अपने अगुवा के रूप में तैनात कर के अपना फ़ायदा भी निकालते थे।
वर्ष 2021 में माओवादियों द्वारा अगवा किए गए सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फोर्स के एक ऑफ़िसर को बचा कर लाने वाली टीम में मुकेश भी शामिल थे। इस रेस्क्यू ऑपरेशन पर टिप्पणी करते हुए मुकेश ने अपने X (ट्विटर) पर लिखा था कि “ले आये @crpfindia के वीर जवान को।”
मुकेश की मोटरसाइकिल पर पीछे की सीट पर बैठे रेस्क्यू किए गए CRPF जवान का वीडियो उसके बड़े भाई, युकेश, ने बहुत गर्व के साथ अपने X (उस समय ट्विटर) पर शेयर किया था।
जैसे- जैसे मुकेश ने अपने आप को पत्रकार के रूप में स्थापित किया दूसरे पत्रकारों की तरह दिल्ली और रायपुर से संचालित होने वाले न्यूज़ चैनलों के लिए स्ट्रिंगर या संवाददाता के रूप में काम करते- करते वो भी घुटन महसूस करने लगे। मुकेश के जैसे लोकल रिपोर्टरों के काम का अक्सर संज्ञान नहीं लिया जाता है। और इससे भी बुरी बात ये कि पत्रकारिता के पेशे से संबंध ना रखने वाले बहुत से कारणों की वजह से इस प्रकार के लोकल रिपोर्टरों का काम बहुत बार प्रकाशित भी नहीं होता है। इसीलिए अपने बहुत से साथियों की तरह मुकेश ने भी अपना स्वतंत्र यूट्यूब चैनल बना लिया। परिणामस्वरूप दूर दिल्ली के किसी न्यूज़ रूम में बैठे व्यक्ति को ये अधिकार देने की वजाए कि वो निर्णय ले कि मुकेश क्या और कैसा रिपोर्ट करेंगे, मुकेश रिपोर्टिंग से जुड़े ये सभी निर्णय अब ख़ुद ले सकते थे।
स्वतंत्र यूट्यूब चैनल बनाने के अपने अलग खतरे थे। मुकेश अब ख़ुद अपने बल पर थे। अब उनको अपने हिस्से की पर्याप्त धमकियां और चेतावनियां मिलने लगी थीं। कभी राज्य पुलिस तो कभी हथियारबंद माओवादी मुकेश को धमकाते थे। एक बार जब माओवादियों ने लोकल पत्रकारों को सरकार और प्राइवेट कंपनियों का ‘दलाल’ कहकर उनकों धमकाया तो मुकेश ने माओवादियों को जवाब देने के लिए कमान संभाल ली थी। और देखते- देखते अपने कैमरे का प्रयोग करते हुए मुकेश ने बीजापुर से कांग्रेस के MLA द्वारा अपने साथी पत्रकारों को लेकर कही गईं अनाप- शनाप बातों का भंडाफोड़ कर दिया था।
रायपुर और दिल्ली से सीधे बस्तर पहुंचने वाले पत्रकार, जिनकों बस्तर के प्रतिकूल वातावरण को समझने में समस्याओं का सामना करना पड़ता था, अक्सर मुकेश से मदद मांगा करते थे क्योंकि पैराशूट पत्रकारों को प्रतिकूल जान पड़ने वाला बस्तर आख़िर मुकेश का घर जो था। इस प्रकार के पैराशूट पत्रकारों को सावधानी पूर्वक पड़ताल करने में मुकेश अक्सर अपनी मोटरसाइकिल के माध्यम से मदद मुहैया कराया करते थे। दिल्ली के TV नेटवर्कों के लिए जोखिम भरी कहानियां कहने के साथ अपने चैनल बस्तर जंक्शन का प्रसार करने के उदेश्य से इस चैनल पर मुकेश को और भी अच्छी ज़मीनी व बेहद स्पष्ट भाषा में बोलते हुए सुना जा सकता था। बस्तर जंक्शन का प्रसार मुकेश के ख़िलाफ़ बढ़ती ईर्ष्या का एक मुख्य कारण बनने वाला था।
और एक दिन लोहे की खदान की ओर जाने वाली एक सड़क के खराब निर्माण को रिपोर्ट करने के कारण मुकेश की हत्या कर दी गई।
3 जनवरी को बीजापुर के नए बस स्टैंड के पीछे ठेकेदार सुरेश चंद्राकर के मालिकाना हक़ वाली चट्टानपारा नामक जगह के एक गटर से मुकेश की लाश बरामद की गई।
सुरेश
सुरेश चंद्राकार भी मुकेश की तरह बासागुडा गांव का ही रहने वाला था। ग़रीब अनुसूचित जाति के परिवार से आने वाला सुरेश, मुकेश की ही तरह महत्वाकांक्षी था, लेकिन मुकेश के उलट उसकी महत्वाकांक्षा का रंग कुछ अलग ही प्रकार का था।
मुकेश चंद्राकर के परिवार की ही तरह सुरेश का परिवार भी कुछ पीढ़ी पहले ही बासागुडा में आकर बसा था। सुरेश से किसी भी तरह के संबंध से इनकार करते हुए युकेश कहते हैं कि “मुझे एक धुंधली सी याद तो है कि मैंने एक बार बासागुडा में उसको रोड पर टहलते हुए तो देखा था, लेकिन इसको छोड़कर मुझे उसका कोई किस्सा याद नहीं है।” युकेश आगे कहते हैं कि “सुरेश और मेरी पहचान बीजापुर में ही हुई थी।”
जैसे- जैसे सुरेश वयस्क हुआ, कभी अपनी चहल- पहल वाली बाज़ार के लिए जाने जाना वाला बासागुडा एक ऐसे हिंसक क्षेत्र में तब्दील हो चुका था जहां माओवादियों की सलवा जुडूम और सरकारी सशस्त्र बलों से लड़ाइयां शुरू हो गईं थीं। इस हिंसक दौर में जब मुकेश की माँ अपनी जान बचाते और जोखिमों से पार पाते हुए अपने जीवनोपार्जन के लिए संघर्ष कर रहीं थीं तब सुरेश ने चारों ओर फैली हिंसा के बीच एक अवसर तलाश लिया:
सुरेश चंद्राकर ने आदिवासी जनता के साथ घोटाला करने का एक व्यापार शुरू कर दिया। बासागुडा के कई लोगों ने हमें बताया कि वो आदिवासियों के नाम पर बैंक से लोन लिया करता था और बीच में हेर-फेर करके लोन के एक बड़े हिस्से को वो ख़ुद ही गटक जाता था। सुरेश को ये बात बहुत अच्छे से पता थी कि हिंसा प्रभावित इलाके में बैंक का कोई भी कर्मचारी मौके पर आकर लोन वसूल करने का जोखिम नहीं उठायेगा। लेकिन जैसे- जैसे सलवा जुडूम की हिंसा ने भयंकर रूप अख़्तियार किया अन्य लोगों की तरह सुरेश को भी दूसरे विकल्प चुनने पड़े।
इस मोड़ पर सुरेश ने स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर (SPO) की नौकरी कर ली। उस समय छत्तीसगढ़ पुलिस, क्षेत्र के युवाओं को ओपन कॉल देकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर के पद पर भर्ती होने के लिए आमंत्रित करती थी। हालांकि तथ्य ये था कि सरकार के द्वारा माओवादियों से भिड़ने के लिए आदिवासियों को मिलाकर बनाई गई निगरानी टुकड़ियों को धनात्मक रूप से प्रस्तुत करने हेतु इन टुकड़ियों को स्पेशल पुलिस ऑफिसर्स के रूप में पेश कर दिया गया था। इस समय छत्तीसगढ़ पुलिस के द्वारा बरपे जा रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के चलते परेशान करके दंतेवाड़ा से बाहर निकाले गए सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं कि “उन दिनों किसी के पास सिर्फ़ दो ही विकल्प थें- या तो सरकार और पुलिस के साथ खड़े हो जाओ अन्यथा माओवादी के रूप में चिन्हित किए जाने के लिए तैयार रहो।” लेकिन अंततः वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने, सलवा जुडूम और स्पेशल पुलिस ऑफ़िसरों की नियुक्तियों, दोनों को असंवैधानिक और ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया।
क्षेत्रीय पत्रकारों ने हमें बताया कि SPO के पद पर काम करते हुए सुरेश चंद्राकर सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस (SP) के ऑफ़िस में बाबर्ची का काम किया करता था। उस समय SPO के पद पर कार्यरत व्यक्ति को 1500 रुपए से 3500 रुपए तक का मानदेय दिया जाता था। लेकिन सुरेश को इस वेतनमान से ज़्यादा पैसा कमाने की ख़्वाहिश थी इसलिए उसने SP की छत्रछाया में एक छोटे ठेकेदार के तौर पर अपना सफ़र शुरू किया और वो सुरक्षा बलों के बैरक और पुलिस स्टेशनों का निर्माण कराने लगा। बीजापुर के पत्रकार गणेश मिश्रा बताते हैं कि “ठेकेदारी का ये काम संभवतः सुरेश को SPO की कम आमदनी वाली नौकरी से ज़्यादा रास आया।”
लेकिन अभी तो ये ठेकेदार के तौर पर ये सुरेश की महज़ शुरुआत ही थी। आने वाले कुछ सालों मे सुरेश का धंधा और चमका और देखते- देखते सुरेश सड़क निर्माण के ठेकों से पैसा बनाने लगा।
बीजापुर जिले के एक अन्य ठेकेदार अजय सिंह ने हमें बताया कि “ठेकेदार के रूप में सफ़ल होने के लिए भाग्य और नितांत कड़ी मेहनत की ज़रूरत होती है, लेकिन इन चीज़ो को छोड़कर अन्य चीज़ो का भी ख़याल रखना पड़ता है।” जब फ़रवरी महीने की शुरुआत में हम अजय सिंह से उनके भैरमगढ़ स्थित आवास पर मिले तो चेहरे पर मुस्कान लिए उन्होंने हमें बताया कि “ठेकेदारों को लोकल राजनेताओं से बना कर रखनी होती है और मांग किए जाने पर नेताओं की ज़रूरतें भी पूरी करनी पड़ती हैं। ये सब खेल का हिस्सा है। और मेरे ख़ुद के लिए ये सब कर पाना बेहद कठिन है।”
यहां पर अजय सिंह को याद दिलाने वाली बात ये है कि पंद्रह सालों तक कांग्रेस के साथ रहने के बाद वो BJP में शामिल हो गए थे लेकिन BJP के साथ उनकी ये यारी ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। अपने ठेकेदारी के करियर में अजय एक छोटे ठेकेदार ही रहे और उनको बमुश्किल काम मिलता है। हमने उनसे पूछा कि अगर ठेकेदारी की दुनिया में राजनीतिक छत्रछाया इतनी ज़रूरी है तो छत्तीसगढ़ में सरकार बदलने पर ठेकेदार अपने आप को कैसे सुरक्षित रखतें हैं? हमारे प्रश्न के जवाब में सिंह ने उत्तर दिया कि “ठेकेदार अपना खेल बहुत बारीकी से खेलतें हैं और इस दौरान वो नेताओं से भिड़ने से बचतें हैं। संसाधनों के लिए नेताओं को भी ठेकेदारों की ज़रूरत होती है।”
नेताओं के ऊपर तंज कसते हुए अजय कहते हैं कि
"उनको भी तो फंड्स की ज़रूरत होती है"
वर्ष 2003 के दिसंबर महीने से 2018 के दिसम्बर तक, 15 सालों के लिए छत्तीसगढ़ में BJP की सरकार थी। बाद में वर्ष 2018 में कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ की सत्ता में भारी बहुमत के साथ वापसी की और 2023 तक कांग्रेस के एकछत्र राज के बाद BJP एक बार फिर से छत्तीसगढ़ की सत्ता में वापिस आ गई। इस पूरे वक़्त के दौरान सुरेश संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता रहा।
वर्ष 2021 तक सुरेश इतना अमीर बन चुका था कि शादी के बाद वो अपनी पत्नी को घर लाने के लिए हैलीकॉप्टर किराए पर ले सकता था। साथ में इस समय तक वो इतना शक्तिसंपन्न हो चुका था कि अपने चारों तरफ़ पसरी भीषण ग़रीबी और सरकार की हथियारबंद माओवादियों से बढ़ती हुई लड़ाई के बीच भी वो बहुत आत्मविश्वास के साथ अपनी अमीरियत दिखा सकता था।

इस समय तक बीजापुर न्यू बस स्टैंड के पीछे सुरेश के घर के पास जंगलात की क़ब्ज़ियाई हुई ज़मीन पर तमाम गाड़ियो, जैसे एक मर्सिडीज बेंज, दो BMW, टोयोटा इनोवा, महिंद्रा स्कॉर्पियो और थार जैसी एक- दो SUVवियों, कुछ- एक मोटरसाइकिलों और बेशक बहुत सारी JCB मशीनों के साथ- साथ डंपरों आदि, को खड़े देखा जा सकता था।
हथियारबंद जंग कैसे एक राजनीतिक अर्थव्यवस्था को जन्म देती है और साथ में हिंसात्मक माहौल के बीच ऊर्जा पाकर ये राजनीतिक अर्थव्यवस्था कैसे अपने पैर पसारती है, मुकेश का उदाहरण हमें ये बखूबी दिखाता है।
हमने जितने भी लोगों से बात की उनमें से अधिकांश ने हमें ये बताया कि नेलसनार- कोडोली- गंगालूर (NKG) रोड को बनाने का ठेका ही वो ठेका था जिसने सुरेश की किस्मत चमका दी थी। इस रोड का निर्माण कार्य ही वो मुद्दा था जिसको लेकर मुकेश और सुरेश के बीच खूनी टकराव हो गया था। और अंततः कथित रूप से इस रोड के कारण ही मुकेश को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
दूसरी किश्त
सड़क के अंत में सुलगती हुई एक खदान
बस्तर में लोगों के लिए गांव की पुरानी सड़कें हैं वहीं डबल-लेन सड़कों पर खनिजों को ढोया जाता है।
उत्तर से दक्षिण तक लगभग 40 किलोमीटर तो वहीं बैलाडीला पहाड़ी रेंज की चौड़ाई 5 से 10 किलोमीटर है। NKG रोड इसी पहाड़ी रेंज को पश्चिम की तरफ़ से बांधती है।

बैलाडीला के अलग- अलग लोगों के लिए अलग- अलग मायने हैं। सरकार और माइनिंग कंपनियों के लिए बैलाडीला एक ऐसा विशाल मालदार टीला है जिसके 14 अलग- अलग तहख़ानों से अनुमानतः 230 करोड़ रुपए की क़ीमत वाले उच्च कोटि के कच्चे लोहे की खुदाई की जा सकती है।
भूगोल के किसी जानकार के लिए बैलाडीला एक ऐसी प्राकृतिक सीमा है जिसके पश्चिम में बीजापुर तो पूर्व में दंतेवाड़ा पड़ता है।
यदि गोंडी भाषा के लिहाज़ से देखें तो ‘बैल के कूबड़’ को बैलाडीला कहते है। दिल्ली विश्वविद्यालय की सोशल एंथ्रोपोलॉजिस्ट नंदनी सुंदर ने हमें बताया कि गोंड आदिवासी बैलाडीला को अपने आराध्य देवों का घर मानते हैं जिसकी नंदराज नाम की पर्वतीय चोटी- जो कि छत्तीसगढ़ की सबसे ऊंची चोटी है- में गोंड आदिवासियों के मिथकों के अनुसार उनके सबसे बड़े देवता भगवान नंदराज का निवास है। गोंड आदिवासी, पहाड़ों के मालिक होने के साथ- साथ ज्ञान के प्रदाता भगवान नंदराज को ‘पताप’ कहते हैं। प्रोफेसर सुंदर बताती हैं कि गोंड मान्यता के अनुसार क्योंकि नंदराज का जन्म लोहे और खनिजों से भरपूर पहाड़ों में हुआ था इसलिए उनका परिवार जहां- जहां गया और जिस- जिस पहाड़ पर उनके परिवार ने निवास किया उन पहाड़ों में वर्तमान में खनिज पाए जाते हैं।
बैलाडीला के तलहटी इलाक़ों में आदिवासियों की ज़िंदगी फलती- फूलती है। एक ओर जहां बीजापुर में पड़ने वाले पूर्वी बैलाडीला के तलहटी भाग में इक्यानवे गांव हैं वहीं दंतेवाड़ा में आने वाले इसी पहाड़ की पश्चिमी तलहटी 35 गांवों को आशियाना देती है।
बैलाडीला पहाड़ के ये सभी गांव पहाड़ी जंगलों में ना होकर पहाड़ के छोरों पर हैं। गांवों के पहाड़ी जंगलों में ना होंने से पहाड़ों की खुदाई करके खनिज निकालने वाले खनिकों को सुविधा रहती है क्योंकि मूल्यवान अयस्क का खनन करने के लिए खनिकों को लोगों को इधर से उधर विस्थापित नहीं करना पड़ता है। व्यावहारिक बात ये है कि आदिवासियों का विस्थापन, उनकी मान्यताओं के ऊपर की गई चोट या फ़िर उनके चरागाहों, जल के स्रोतों और जंगल से उत्पादित की गई उनकी वस्तुओं के विनाश का अधिकांशतः खनिकों के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
1980 के दशक में बनाई गई NKG रोड वर्ष 2000 तक जिले की एक बड़ी रोड हुआ करती थी। इस रोड पर चलती हुई बसें बीजापुर तरफ़ के दूर- दराज में स्थित गांवों से जिले के हेडक्वाटरों तक यात्रा करने की सुविधा प्रदान करतीं थीं। सिंगल लेन NKG रोड का धूल भरा जंगली रास्ता, साईकिलों को, मोटरसाईकिलों को और यहां तक की तेंदू के पत्तों को तोड़ने के मौसम में लोगों को परिवहन प्रदान करने वाले ट्रैक्टरों को, आसान पहुंच मुहैया करता था। फ़िर हुआ ये कि सरकार समर्थित निगरानी टुकड़ी, सलवा जुडूम, को माओवादियों से निपटने के लिए तैनात कर दिया गया और बढ़ती हुई हिंसा के बीच NKG रोड का प्रयोग होना बंद हो गया।
52.4 किलोमीटर की इस NKG रोड की आधारशिला को फ़िर से रखने और इसका निर्माण करने के लिए बाद में वर्ष 2010 में सरकार ने टेंडर निकाला। जंग के बीचों- बीच सड़क का निर्माण करना अपने आप में जद्दोज़हद का काम है इसलिए NKG रोड के टेंडर में बड़े ठेकेदारों ने बोली नहीं लगाई। साथ में इस रोड का निर्माण कार्य बहुत से सुरक्षा संबंधी जोखिमों से भी भरा था। इसलिए अंत में सरकार ने रोड बनाने के इस पूरे ठेके को 2 से 3 किलोमीटर की कई छोटी- छोटी सड़कें बनाने के ठेकों में तोड़ दिया। इस प्रकार के छोटी दूरी की सड़क बनाने के टेंडर खुलते ही छत्तीसगढ़ स्थित बी- कैटेगरी वाले सुरेश चंद्राकर जैसे ठेकेदारों को सड़क निर्माण की प्रक्रिया में बोली लगाने का मौका मिल गया।
कुल जमा रोड को 30 भागों में तोड़ दिया गया और रोड के इन तीस भागों के निर्माण का ठेका छह अलग- अलग ठेकेदारों को दे दिया गया। सुरेश चंद्राकर के हाथ में 30 में से 18 हिस्सों का ठेका आया जिसकी कुल लंबाई 32 किलोमीटर थी। 32 किलोमीटर की इस सड़क को बनाने के ठेके में पांच पुल और कई पुलियां भी शामिल थीं।
रोड की चौड़ाई को 3.5 मीटर से 7 मीटर तक बढ़ाया जाना था। चूंकि पहाड़ो के पश्चिमी भाग में बैलाडीला की खदानों से निकलने वाले कच्चे लोहे को बाहर लेकर आने का कोई आसान रास्ता नहीं था इसलिए इस नई सड़क का निर्माण किया जा रहा था। हालांकि यह सड़क क्षेत्र के विकास के नाम पर बनाई जा रही थी लेकिन आदिवासियों के जंगल और ज़मीन को निगलती हुई ये सड़क असल में इतनी चौड़ी रखी गई थी कि विकसित भारत की कहानी को सुनिश्चित करने के लिए कच्चे लोहे को इस पर ढोया जा सके और साथ में इस सड़क से होते हुए सरकार के सशस्त्र बल भी मौके पर पहुंच सकें।
हालांकि रोड निर्माण का काम अभी तक शुरू भी नहीं हुआ था और खदानें भी इंतज़ार में हीं थीं, वर्ष 2015-16 में सरकार ने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में सड़क निर्माण के कार्यों को लेकर अपनी नज़र और पैनी कर दी। सड़क निर्माण को लेकर दिखाई गई सरकारी फुर्ती और बैलाडीला रेंज के और भी अधिक हिस्से को कच्चे लोहे के खनन के लिए खोलने की तैयारी, दो ऐसी घटनाएं थीं जो साथ- साथ घटित हुईं थीं।
वर्ष 2021 में प्राइवेट खनिकों को कच्चे लोहे का खनन करने की इजाज़त देने के लिए केंद्र सरकार ने कानूनों में संशोधन कर दिया। इन संशोधनों की वजह से बैलाडीला की पहाड़ी रेंज से लोहे को खोदने की अनुमति मिलने से प्राइवेट खनिकों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। अब तक मात्र सरकारी कंपनियों का ही क्षेत्र की खनन प्रक्रिया पर एकाधिपत्य था लेकिन अब नईं खदानों को प्राइवेट खिलाड़ियों के लिए खोलने की आक्रामक नीति के साथ इन संभावित नईं खदानों से कच्ची धातु को बाहर लाने के लिए नईं सड़कों के निर्माण का क्रम भी जोर पकड़ने लगा था। जहां एक ओर बहुत से गांव अपनी पारंपरिक ज़मीनों पर बिना उनकी सहमति के नई खदानें खोले जाने की वजह से विरोध पर उतर आए थें वहीं दूसरी ओर इन गांवों को, उच्च मूल्य वाले ठेके देकर प्रोत्साहित की गई, रफ़्तार पकड़ती नईं सड़कों की निर्माण प्रकिया से भी दो- दो हाथ करना था।

सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवालों के जवाब में राज्य सरकार ने हमें बताया कि सड़क निर्माण के ठेकों की मई 2010 में अनुमानित राशि 73.08 करोड़ रुपए थी जिसको बढ़ाकर वर्ष 2021 में 188.78 करोड़ रुपए कर दिया गया था। जहां प्रति एक किलोमीटर रोड बनाने के लिए 1.84 करोड़ रुपए खर्च किए जाते थे वहीं अब इसी एक किलोमीटर के रोड निर्माण पर प्रभावी रूप से 3.60 करोड़ रुपए खर्च होने लगे।
RTI के तहत प्राप्त हुए सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि NKG रोड के प्लान में संशोधन कर के पहले से निर्धारित 78 पुलियों/पुलों के आकार में परिवर्तन के साथ- साथ रोड में 43 नईं पुलियों/ पुलों को भी शामिल कर लिया गया था। सुरेश को मिले जो ठेके वर्ष 2010 में कुल 54.86 करोड़ रुपए के थें, वर्ष 2021 में करीब तीन गुना उछाल के साथ वही ठेके अब 146.455 करोड़ रुपए के मूल्य पर पहुंच गयें ।
पहचान गुप्त रखने की शर्त पर छत्तीसगढ़ के एक दूसरे ठेकेदार ने हमें बताया कि ठेकों के कुछ मूल्यों में हुई बढ़ोतरी सही थी। सड़क निर्माण के लिए पहले हुए विभिन्न सर्वेक्षण सुरक्षा कारणों की वजह से बेहद कठिन थे। ख़ुद को मिली सड़क बनाने की चुनिन्दा पट्टियों को जब ठेकेदार नज़दीकी से देखना शुरू करता है ये संभव है कि पुलों और पुलियों को ज्यादा संख्या में बनाना पड़ जाए, लेकिन इस ठेकेदार ने माना कि ठेके की क़ीमत में तीन गुना उछाल कोई सामान्य बात नहीं है।

मुंह दबाकर हंसते हुए इस ठेकेदार ने कहा कि “ठेकों की क़ीमत में इस तरह का उछाल हर स्तर पर सांठ- गांठ करने से ही आता है।” हालांकि NKG रोड के निर्माण में हुई इस प्रकार की किसी भी सांठ- गांठ को लेकर इस ठेकेदार ने कोई सबूत पेश नहीं किया, लेकिन उसने कहा कि सुरेश चंद्राकर के लिए अपने रोड निर्माण संबंधी ठेकों के बिलों को भुनाना आसान था क्योंकि “सुरेश की संबंधित विभागों में अच्छी पहुंच है।”
हिंसाग्रस्त क्षेत्र में सभी प्रकार के ठेके पाने के लिए पहुंच होना ही मुख्य मंत्र है। हालांकि जिस गुप्त ठेकेदार से हम बात कर रहे थे उसने अपने दावों को पुख्ता करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया। इस प्रकार के सभी सबूत हमनें अपनी पड़ताल के दौरान दूसरी जगहों से जुटाए। सच तो ये है कि सांठ- गांठ होने के सबूत जुटाना अपने आप में कोई बड़ा काम नहीं था।
NKG रोड पर ख़ुद मुकेश चंद्राकर ने इस तरीके के सबूत बरामद किए थे।
तीसरी किश्त
सुपारी
अमीरों को अमीर बनाने वाली उस सड़क की कहानी जिसका दूसरा सिरा एक जघन्य हत्या तक जाता है।
मुकेश की मदद से दिसम्बर 2024 में NDTV के पत्रकार, नीलेश त्रिपाठी, ने इस बात पर ख़बर प्रकाशित की थी कि नई NKG रोड की पट्टियों को कितने ज़्यादा ख़राब तरीके से बनाया गया है।
त्रिपाठी ने हमें बताया की बीजापुर के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर ने इस बात को लेकर हामी भरी थी कि NKG रोड का निर्माण बहुत घटिया तरीके से किया गया है और कलेक्टर का दावा था कि इसके लिए उन्होंने रोड के ठेकेदार को फटकार भी लगा दी है। त्रिपाठी ने ठेकेदार, सुरेश, से भी मामले पर टिप्पणी लेने के लिए संपर्क किया था। त्रिपाठी को दिए गए जवाब में सुरेश ने दावा किया था कि रोड के हालात इसलिए खराब थे क्योंकि रोड पर से निकलने वाले भारी वाहनों ने रोड का कचूमर निकाल दिया था और रोडों के निर्माण को ज़ल्दी संपन्न करने के दबाव के कारण इनकी गुणवत्ता ख़राब हो जाती हैं। त्रिपाठी ने सुरेश से कहा कि वो या तो अपना जवाब लिखित में भेज दें या फिर अपनी बात वॉइस नोट पर कह दें। लेकिन औपचारिक रूप से जवाब देने की वजाए सुरेश ने त्रिपाठी से व्यक्तिगत तौर पर मिलने का अनुरोध किया। जब त्रिपाठी ने सुरेश को ये कह कर मिलने के लिए मना किया कि वो अभी आस- पास नहीं हैं सुरेश ने ये पूछा कि यदि किसी क्षेत्रीय रिपोर्टर ने रोड से संबंधित खबर करने में आपकी मदद की हो तो क्या आपकी जगह वो मुझसे मिल सकता है। सुरेश के इस प्रश्न के जवाब में त्रिपाठी ने सुरेश को मुकेश का नाम बता दिया और इसके बाद सुरेश ने फ़ोन काट दिया।
NDTV की ख़बर प्रकाशित होने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के बहुत से विभागों ने ताबड़तोड़ कार्यवाही करना शुरू कर दी। इस समय छत्तीसगढ़ में BJP की सरकार थी और क्योंकि सुरेश कांग्रेस से संबंध रखता था इसलिए इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है कि सुरेश के कांग्रेस से ताल्लुक़ात होने के कारण ही सरकार तुरंत हरकत में आ गई थी। NDTV की ख़बर के प्रकाशित होने के एक दिन बाद, अर्थात् 25 दिसम्बर को, डिप्टी चीफ मिनिस्टर अरुण साओ की अध्यक्षता में संचालित रायपुर स्थित पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट ने रोड की पड़ताल के लिए चार सदस्यों वाली एक जांच टीम का गठन कर दिया। और दो दिन बाद राज्य के आयकर विभाग ने ठेकेदार, सुरेश, के स्थानों पर छापा मार दिया। इस छापे में रोड निर्माण की प्रक्रिया में हुई 2 करोड़ रुपए के कर की कथित चोरी का ख़ुलासा किया गया।
सरकार की इस त्वरित कार्यवाही से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो जैसे बस्तर की चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद खस्ताहाल NKG रोड की हालत और सुरेश के ठेके में घालमेल की जो गुप्त बातें अभी तक किसी प्रकार सभी की नज़रों से छुपी हुई थीं वो बातें त्रिपाठी और मुकेश की ख़बर के बाद प्रकाश में आ गईं थीं।
इसके बाद रायपुर के अपने एक साथी को मुकेश द्वारा ये सूचित किए जाने के बाद कि वो एक क्षेत्रीय ठेकेदार से मिलने जा रहा है, 1 जनवरी 2025 को मुकेश ग़ायब हो गया। मुकेश के भाई, युकेश चंद्राकार, ने 2 जनवरी को मुकेश की गुमशुदगी के बारे में सूचना दी। और अगले ही दिन कंक्रीट के भल्लों से अभी ताजा ही सील किए गए एक गटर में से मुकेश का शव बरामद किया गया।

मुकेश की शव की बरामदगी के साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार ने आनन- फ़ानन में मामले की तहक़ीक़ात के लिए एक विशेष जांच दल का गठन कर दिया, लेकिन इस जांच दल ने पूरे मामले की जो पड़ताल की उस जांच ने ही कई प्रश्नों को जन्म दे दिया। पुलिस ने जघन्य हत्या के आरोप में ठेकेदार सुरेश चंद्राकर, उसके भाई रितेश और दिनेश को मिलाकर सुरेश के एक कर्मचारी महेंद्र रामटेके को 5 जनवरी को गिरफ़्तार कर लिया। मार्च के महीने में दायर की गई 1,200 पन्नों की चार्जशीट में सुरेश के ऊपर, मुकेश के द्वारा ख़बरें लिखे जाने को लेकर कथित रूप से उनकी, हत्या का षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया गया।
सरकार की तरफ़ से सुरेश के ऊपर की जा रहीं ताबड़तोड़ कार्यवाहियों का क्रम जारी रहा। सुरेश के सड़क निर्माण संबंधी ठेके निरस्त कर दिए गए और इसी के साथ ठेकेदार के रूप में उसका पंजीकरण भी रद्द कर दिया गया।
इसी बीच वन विभाग की भी अचानक से नींद टूटी और वन विभाग ने सुरेश के द्वारा कब्ज़ा की गई जंगलात की ज़मीन के कुछ भागों पर बुलडोजर चलबा दिया। वन विभाग के एक कर्मचारी ने हमसे बात करते हुए दावा किया कि करीब पांच वर्ष पूर्व सुरेश ने जंगलात की जमीन पर कब्ज़ा किया था, लेकिन वन-कर्मचारी ने इस विषय पर बात करने से मना कर दिया कि आख़िर कितने समय पहले से वन विभाग को इस कब्ज़े के बारे में जानकारी थी।
धोखाधड़ी, अपने पद का ग़लत इस्तेमाल करने और सड़क की खराब हालत को नज़रअंदाज़ कर के ख़ुद के दायित्व से पल्ला झाड़ने के आरोप में एक सेवानिवृत्त एग्जीक्यूटिव इंजीनियर और दो जूनियर लेवल के जिला स्तर पर कार्यरत अधिकारियों के नामों को एक दूसरी प्राथमिकी में शामिल कर लिया गया।
‘व्यवस्था’ बलि के बकरों की तलाश में थी। बस्तर के ‘विकास’, जंग और खनन के व्यापार को फ़िर से शुरू करने के लिए मुकेश की हत्या के इस पूरे पाठ को बहुत ज़ल्दी ख़त्म किया जाना बेहद ज़रूरी था।
अचानक से सामने आए NKG रोड के निर्माण में हुए घोटाले के आरोपों का विषय एक अन्य ठेकेदार से छेड़ने पर उन्होंने हमसे कहा कि मुकेश की हत्या के कारण ये मसला प्रकाश में आ गया लेकिन सड़कों के निर्माण में घोटाला हो जाने में कुछ भी असामान्य नहीं है। ये कहते हुए कि “आप जितना अंदर जायेंगे, उतना कीचड़ मिलेगा” इस ठेकेदार ने हमें सुझाया कि छोटे स्तर के कर्मचारियों को निशाना बनाकर जनता की आँखों में सिर्फ़ धूल झोंकी जा रही है।
जिस ठेकेदार से हम बात कर रहे थे उन्होंने और कई अन्य ठेकेदारों ने माना कि हर स्तर पर रिश्वत दिया जाना आम बात रही है। सड़क निर्माण के दौरान पुलिस अधिकारियों को दी जाने वाली रिश्वत से लेकर माओवादियों से शांति बनाए रखने लिए उनकों रुपए- पैसे लेने- देने की बात इन सभी ठेकेदारों ने स्वीकार की।
मुकेश की हत्या के बाद स्टेट पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट की जांचों की रिपोर्टों को सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त करके हमने उनका रिव्यू किया। इन रिपोर्टों में रोड की कई पट्टियों को “अधूरा”, “खराब हालत में”, “प्रगति पर है” और “गुणवत्ता विहीन हैं” के रूप में संबोधित किया गया है। रोड निर्माण के कार्य को संपन्न घोषित कर के जब कई सालों तक ठेकेदारों को सरकार पैसा देती रही तो रोड की इन सभी ख़ामियों पर ना तो गौर फ़रमाया गया और ना ही इनकीं सुध ली गई। जांच रिपोर्ट कहती है कि 32 किलोमीटर की जिस रोड की पट्टी का निर्माण सुरेश चंद्राकर ने किया था वो रोड “गुणवत्ताविहीन” है फ़िर भी इस पट्टी के निर्माण के लिए 75% धन का भुगतान सुरेश चंद्राकर को रोड निर्माण का कार्य संपन्न होने के पहले ही कर दिया गया।
पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट के चीफ इंजीनियर जी आर रावाटे से हमने बात की। रावाटे ने कहा कि रोड पर वर्ष 2014 के बाद ही काम शुरू हुआ था।
रावाटे ने अपनी बात में आगे जोड़ा कि “ माओवादी इलाक़ों में रोड निर्माण के काम की निगरानी रोड ओपनिंग पार्टी की कमी और अनउपलब्धता के कारण ठीक से नहीं हो पाती है।” गाड़ियों के रोड पर से निकलने से पहले, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि रोड गाड़ियों के लिए सुरक्षित भी है कि नहीं, जिन पुलिस के जवानों को तैनात किया जाता है उनको रोड ओपनिंग पार्टी कहते हैं।
हमने रावाटे से पूछा कि “पिछले 10 सालों में PWD डिपार्टमेंट ने कितनी बार रोड निर्माण के काम को रिव्यू किया है?”
रावाटे ने सिर हिलाया और ज़ोर देते हुए कहा कि “ये तो कहा नहीं जा सकता है कितनी बार रिव्यू हुआ है क्योंकि रिव्यू की ज़िम्मेदारी जिले में तैनात इंजीनियर की होती है। बिना सिक्योरिटी कवर के इन जगहों पर जाना असंभव होता है।”

इसी तरह से रोड बनवाने वाले अन्य ठेकेदारों ने भी कहा कि उनका काम पूरी तरीके से रोड ओपनिंग पार्टियों पर निर्भर करता है जो अक्सर उपलब्ध नहीं होती हैं जिससे रोड के निर्माण में देर हो जाती है और साथ में निर्माण की लागत भी बढ़ जाती है।
52.4 किलोमीटर की NKG रोड के प्रत्येक 5 किलोमीटर पर सरकारी सशस्त्र बलों का एक कैम्प है। NKG रोड की सुरक्षा के लिए संभवतः 3,000 सुरक्षा बलों को तैनात होना चाहिए, लेकिन बहुत से ठेकेदारों ने हमें बताया कि सैन्य अभियानों में तैनात होने के कारण इतने सुरक्षा बल NKG रोड की सुरक्षा के लिए हमेशा उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
मुकेश की हत्या के बाद आरोपित पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट के अधिकारियों पर NKG रोड के संबंध में अपनी ‘नौकरी के दायित्वों का सही से निर्वाह ना करने और भ्रष्टाचार में शामिल होने’ का आरोप लगने पर उन्होंने भी कोर्ट के समक्ष ये तर्क दिया कि नक्सल संवेदनशील इलाक़ा होने के कारण वो रोड निर्माण की निगरानी और उसका मूल्यांकन नहीं कर पाए थे। और अंततः इन अधिकारियों को कोर्ट से जमानत मिल गई।
वास्तविक ख़तरा
सुरक्षा संबंधी ख़तरें अपने आप में वास्तविक ख़तरें हैं। बस्तर की सड़कों पर इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसेज़ (IED) का प्रयोग करके दोनों, नागरिकों और सुरक्षा बलों, का क़त्लेआम किया जाता रहा है। माओवादियों के द्वारा ठेकेदारों के कर्मचारियों और उपकरणों के ऊपर किए गए हमलों की ख़बरें देर- सबेर आती ही रहती हैं। IED को खोजकर निष्क्रिय करना सुरक्षा बलों की प्राथमिकता में रहता है। एक क्षेत्रीय रिपोर्टर के अनुसार ख़ुद सुरेश चंद्राकर के वाहन को एक बार माओवादियों ने जला दिया था।
बस्तर के सुरक्षा संबंधी जोखिमों की वजह से बड़े ठेकेदार बस्तर से दूर ही रहते हैं, लेकिन सुरेश जैसे बस्तर के बाशिंदे जो बस्तर के सामरिक और राजनीतिक नक़्शे को समझते हैं वो जोखिम उठा कर अच्छा पैसा कमा लेते हैं। माओवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सामान्य जगहों की अपेक्षा सरकार के सड़क निर्माण संबंधी कार्यक्रमों के ठेकों का बजट लगभग 2.5 गुना अधिक होता है। हालांकि माओवादी इलाक़ों में सड़क निर्माण के लिए बजट के सामान्यतः ज़्यादा होने के पैमाने पर भी NKG रोड के निर्माण के ठेके का बजट अपने आप में अपवाद था। जहां शांतिपूर्ण इलाक़ों में प्रति किलीमीटर रोड बनाने के लिए औसतन 25 लाख रुपए खर्च होते हैं वहीं NKG रोड के ठेके में संशोधन के बाद इस रोड के एक किलोमीटर को बनाने की लागत 3.6 करोड़ रुपए तय की गई थी।
जहां पुलिस कभी- कभार कथित रूप से ठेकेदारों और माओवादियों पर आपसी मिलीभगत का आरोप लगाती है वहीं ठेकेदार निर्माण कार्य के दौरान पुलिस सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बड़े अधिकारियों को पैसा खिलाने की बात कहते हैं। लिखित रूप से तो नहीं लेकिन घूस लेने- देने की बात बेहद खुले तौर पर ऐसे होती है कि मानो दिल्ली और रायपुर में बैठे लोगों ने माओवादी इलाक़ों में सड़क निर्माण के लिए घूस खाने- खिलाने के ‘रेट’ को किसी व्यवस्थित बजट के तहत निर्धारित किया हो।
बीजापुर के एक मौसमी ठेकेदार ने कभी भी रोड ओपनिंग पार्टी का सहयोग लेने के लिए पैसा खिलाने की बात से इनकार किया। लेकिन फिर बोलते- बोलते ये ठेकेदार ये बोल गए कि, “अपनी राज़ी - ख़ुशी में कुछ कांट्रैक्टर्स देते है वो अलग बात है…कौन लेता है कौन नहीं, ये नहीं बता सकते।”
बस्तर से सिर्फ़ माओवादियों और सुरक्षा बलों की आपसी जंग की कहानियां ही बाहर निकलती हैं। इस जंग से उपजी ज़िंदगी, राजनीति और व्यापार की कहानियां बस्तर में ही दम तोड़ देती हैं। यही बस्तर का अलिखित नियम है। हालांकि मुकेश की हत्या के कारण ये नियम टूट गया।
मुकेश की हत्या ने एक प्रकार के राजनीतिक आरोप- प्रत्यारोप को भी जन्म दिया। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने मुकेश की हत्या के चार दिन बाद, 5 जनवरी, को ठेकेदार सुरेश की गिरफ़्तारी पर कहा कि “ठेकेदार कांग्रेस का आदमी था।” वहीं कांग्रेस के वक्ता, सुशील कुमार आनंद, ने हत्या के 10 रोज़ पहले सुरेश के कथित रूप से मुख्यमंत्री आवास पर जाने की बात कहते हुए BJP पर ये आरोप लगाया कि सुरेश को BJP के लोग अपनी पार्टी में भर्ती कर रहे थे। हालांकि इन दोनों ही लोगों ने कहा कि कथित अपराधी को दण्डित किया जाना चाहिए।
सामान्य तौर पर न्याय और क़ानून की दिशा- दशा की गति के ऊपर चाबुक रखने वाली सरकार ने मुकेश की हत्या के बाद हैरतअंगेज रूप से जल्दबाज़ी दिखाते हुए सड़क निर्माण का काम फ़िर से शुरू कर दिया। NKG रोड के 7.5 किलोमीटर के भाग पर ‘बचे हुए’ काम को पूरा करने के लिए, मुकेश की हत्या के एक महीने के भीतर ही, टेंडर निकाल दिया गया।
चूंकि सरकार माओवादियों के ख़िलाफ़ अपना मिशन जारी रखने के लिए उत्सुक थी वहीं खनिक सड़कें बनाने और माओवादी जंग जारी रखने के लिए उत्सुक थे, मुकेश की हत्या और इस हत्या के साथ उजागर हुए भ्रष्टाचार के सबूतों को महज़ एकबारगी के अपराध के संदर्भ तक समेट दिया गया।
चौथी किश्त
बलपूर्वक किए गए विकास की कहानी
कैसे बस्तर के ठेकेदारों को अमीर बनाने वाली सड़कें बस्तर के ग़रीबों की ज़िंदगी के साथ- साथ उनकी रोजी- रोटी को भी चट कर जाती हैं।
वर्ष 2024 में NKG रोड के हालात को लेकर की गई मुकेश की रिपोर्ट के तुरंत बाद छत्तीसगढ़ का वन विभाग अचानक से हरकत में आ गया था। वन विभाग ने वर्ष 2021 से वन कानूनों का उल्लंघन कर के बनाई जा रही NKG रोड के अस्तित्व का अचानक से संज्ञान ले लिया था।
जहां पुरानी NKG रोड एक सिंगल लेन की सड़क थी वहीं इस रोड के नए ठेके में इसको डबल-लेन वाली सड़क में परिवर्तित कर दिया गया था। परिणामस्वरूप कभी मूल रूप से 3.5 मीटर चौड़ी NKG रोड की चौड़ाई को अब, किनारों पर 2 मीटर अधिक चौड़ान के अतिरिक्त, 7 मीटर तक बढ़ाया जाना था। जगदलपुर के जंगलों के मुख्य संरक्षक रमेश चंद्र दुग्गा ने हमारे समक्ष इस बात को स्वीकार किया कि रोड की चौड़ाई को बढ़ाने का अर्थ ये था कि निजी, जंगलात व, सीधे तौर पर सरकार को राजस्व चुकाने के लिए बाध्य, रेवन्यू लैंड को मिलाकर और भी अधिक ज़मीन का अधिग्रहण किया जाना था।
सूचना का अधिकार अधिनियम के माध्यम से हमें पता चला कि बीजापुर के डिविजनल फॉरेस्ट ऑफ़िसर ने NKG रोड की चौड़ाई को बढ़ाए जाने से होने वाले भू-अतिक्रमण के ख़िलाफ़ चार प्राथमिक अपराध रिपोर्टें दायर की थीं। साथ में फॉरेस्ट ऑफ़िसर ने राज्य के पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट द्वारा जंगलात की ज़मीन को नुकसान पहुंचाने की एवज में औपचारिक रूप से 68.49 लाख रुपए के हर्जाने की मांग भी की थी।
हालांकि बस्तर के इलाक़े में लगभग सभी सड़कें अनिवार्य रूप से जंगल के रास्तों और जैवविविधता से भरपूर खोहों में दखल डालती हैं, लेकिन फ़िर भी, दुग्गा ने उनके विभाग की तरफ़ से सड़क निर्माण के काम के ऊपर निगरानी की कमी पर प्रकाश डालते हुए कहा कि “सिर्फ़ जब संबंधित विभाग जंगलात की ज़मीन में परिवर्तन के लिए हमसे संपर्क करता है तभी हम सर्वेक्षण कर के ऐसे किसी भी परिवर्तन को मंज़ूरी देते हैं।”
दुग्गा इस बात को स्वीकार करतें हैं कि सड़कों को चौड़ा करने का काम सिर्फ़ जंगल की ज़मीनों को निगल कर ही किया जा सकता है। इस काम को आसान बनाने के लिए केंद्र सरकार ने पहले ही सड़क निर्माण जैसी ‘रैखिक परियोजनाओं (लीनियर प्रोजेक्ट्स)’ का रास्ता साफ़ करने के लिए जंगल को काटने के नियम आसान कर दिए थे।
NKG रोड के निर्माण में ना सिर्फ़ जंगलात की ज़मीन निगली गई बल्कि इस रोड के बनने की प्रकिया में अक्सर आदिवासियों को भी बिना बताए और बिना उनकी इजाज़त लिए उनकी निजी खेतिहर ज़मीनों को भी हड़प लिया गया। जब वर्ष 2021 में ताबड़तोड़ तरीके से NKG रोड का निर्माण कार्य शुरू हुआ था तब चूंकि बुर्जी, पूसनर, पालनार और बेचापल जैसे गांवों के निवासियों की खेतिहर ज़मीन को निगलने के साथ- साथ ये सड़क उत्पादक पेड़ों वाले जंगलों को काट कर बनाई जा रही थी, इन गांवों के लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए ये मांग की थी कि सड़क का निर्माण कार्य शुरू होने से पहले उनकी ग्राम पंचायत से सहमति ली जानी चाहिए थी।
हालांकि ग्रामीणों के द्वारा, सड़कों और उनकी ज़मीनों पर बनाए गए सिक्योरिटी कैम्पों के ख़िलाफ़, किए गए विरोध को विकास-विरोधी घोषित कर दिया गया और साथ में माओवादियों को भड़का कर के उनके ऊपर हमला बोल दिया गया। बहुत से ग्रामीणों को पीटा गया और बहुत से ग्रामीण जेल भी गए। कुछ ग्रामीण अभी भी सलाख़ों के पीछे ही हैं। इसके अतिरिक्त पत्रकारों पर इन ग्रामीण इलाक़ों में जाने को लेकर पाबंदी भी लगा दी गई थी।
ये सब बातें हमें इसलिए पता हैं क्योंकि ग्रामीणों के विरोध-प्रदर्शनों को रिपोर्ट करने के लिए हमने कई बार संबंधित सड़कों की तरफ़ जाने की कोशिश की थी। ‘संबंधित इलाक़ा लैंडमाइन्स से भरा हुआ है’, ‘फलाना रास्ता अभी खुला नहीं है’, ‘ऊपर के अधिकारियों का आदेश नहीं है’ जैसी बातें कह कर हमें विरोध- प्रदर्शनों के ऊपर ख़बर करने से रोका जाता रहा।
मुकेश की हत्या के एक हफ़्ते बाद हमने एक बार फ़िर से NKG रोड का सफ़र तय किया। हालांकि रोड बिल्कुल ख़ाली थी लेकिन कुछ ग्रामीणों के लिए हम रोड पर चढ़ाई करते चले गए। कुछ महिलायें गंगालूर बाज़ार से नंगे पैर अपने दुधमुंहे बच्चों के साथ वापस आ रहीं थीं और छोटे- छोटे बच्चों ने पैदल चलते हुए अपनी माँओं की धोती को पकड़ रखा था, इसी के साथ हमने देखा कि कुछ आदमी साइकिल पर बड़ी- बड़ी पन्नियों में सुल्फ़ी भर कर उसको बाज़ार में या कैम्पों में सुरक्षा बलों को बेचने के लिए ले जा रहे थे।
पालनार गांव में जब हम दो ग्रामीण पुरुषों से बात करने के लिए रुके तो उनमें से एक गंगू कुंजम ने कहा कि “जब ये सड़क बन रही थी दो सालों के लिए मैं जेल में था।”
गंगू से हमने पूछा कि उसका गुनाह क्या था।
हमारे प्रश्न पर ही- ही करते हुए गंगू ने हमसे कहा कि “वही नक्सली होने का आरोप- कि हमने बारूद लगाया, हमारे पास वायर और पर्चा बरामद हुआ।” बस्तर की ज़िंदगी हमें सरकार द्वारा समर्थित अपनी ख़ुद की दुर्दशा पर बस हंसना सिखाती है।
दो साल जेल में रहने के बाद कुंजम, कुंजम के भाई जोगा कुंजम और एक तीसरे ग्रामीण को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। इस दौरान कुंजम ने अपने वक़ीलों के ऊपर 30,000 रुपए का खर्चा किया।
इन दो सालों में कुंजम के गांव का रूप- रंग ही बदल गया। जेल से आने के बाद कुंजम बमुश्किल अपने गांव को पहचान पाए थे। हंसते हुए कुंजुम ने कहा कि “अपने गांव में हूं या किधर।” उदासी भरे भाव से सिर हिलाते हुए कुंजुम ने आश्चर्य व्यक्त किया कि इस दौरान बहुत कुछ बदल गया और पालनार से तिम्मेनर तक लगभग 1,000 पेड़ काट दिए गए।
NKG रोड पर 3 किलोमीटर और चढ़ाई करते हुए जब हम रोड के किनारे बसे तिम्मेनर गांव पहुंचे तो अपने खेत की ऊपरी मिट्टी हटाते और मेड़ बनाते हुए कई किसानों से हमारी मुलाक़ात हुई।
अपने काम पर जाते हुए बाबूराम कुंजम ने हमें बताया कि “हम लोग सड़क बनाने में लगा मुर्रम नाम से जाने- जाना वाला चट्टानी बुरादा जो बारिश के बाद खेत पर जमा हो गया है उसको अपने खेतों पर से हटा रहे हैं।” तिम्मेनर के ग्रामीण बारी- बारी से एक- दूसरे के सड़क के पास पड़ने वाले खेतों से मुर्रम की सफ़ाई करते हैं।

बाबूराम ने कहा कि सड़क ने हमारे खेत की उर्वरता कम कर दी है। बाबूराम ने कहा चूंकि पुरानी रोड को डबल-लेन बनाया गया था इसलिए रोड की ऊंचाई को तीन- चार फीट बढ़ाने के लिए ठेकेदार ने रोड को मुर्रम से पाटने से पहले JCB से आस- पास के खेतों से मिट्टी निकाल कर रोड पर डलवा दी थी और “अब जब मानसून की आहट के साथ किसान खेतों को तैयार कर रहे हैं उन्हें खेतों में घुस रहे मुर्रम को साफ़ करना पड़ेगा।”
नई सड़क खेतों को निगल गई। तिम्मेनर के एक अन्य ग्रामीण करम कुमार के पास डेढ़ एकड़ ज़मीन थी। अपने खेत से थोड़ी दूर खड़े होकर करम ने हमें बताया कि चूंकि उनकी ज़मीन मुर्रम से भर गई थी इसलिए वो उसमें कुछ नहीं बो पाए थे। रुबासे सुर में उन्होंने कहा कि पिछले साल जहां उनके खेत पर पांच कुंटल धान उपजा था वहीं इस साल उसी खेत पर सिर्फ़ तीन कुंटल धान की पैदावार हुई है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि उनके एक आम के पेड़ को भी काट दिया गया और इसके अतिरिक्त उनके महुआ के दो पेड़ो को भी क्षति पहुंची थी। दुखी मन से आह भरते हुए करम ने हमें बताया कि “उनने पेड़ों को JCB मशीन से उखाड़ दिया।”
हमने तिम्मेनर में और भी दूसरे ऐसे किसानों से मुलाक़ात की जिनके पास करम जैसी ही सुनाने के लिए कई कहानियां थीं। तिम्मेनर में सिक्योरिटी कैम्प के निर्माण के कारण कोवा ओयाम को अपनी पूरी की पूरी एक एकड़ ज़मीन से हाथ धोना पड़ा। कोवा हालांकि अपनी ज़मीन पर अन्न उगाया करते थे लेकिन दिखाने के लिए इस ज़मीन का पट्टा उनके पास नहीं था। क्षेत्र के राजस्व अधिकारी ने कोवा को पट्टा उपलब्ध कराने का वादा किया था, लेकिन उनको पट्टा मिलता उससे पहले उनकी ज़मीन पर सिक्योरिटी कैम्प का निर्माण हो गया। मायूसी के साथ कोवा ने कहा कि “अब मैं उनके सामने ये कैसे साबित करूं कि इस ज़मीन को मैं ही जोतता था।”
गंगालूर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर और बेचापल सिक्योरिटी कैम्प से थोड़ा पहले हमारा एक पुल से सामना हुआ जो पूरी तरह से ढह चुका था। इलाक़े को दिखाने के लिए उत्सुक हमारी गाड़ी पर सवार 30 वर्षीय गुड्डू कडती ने हमें बताया कि ये पुल 2 अगस्त 2024 को ढहा था। कडती अपनी पांच एकड़ के फलते- फूलते धान के उर्वरक खेत को उसके ऊपर ज़मींदोज़ हुए इस पुल को खो बैठे थे। दुख प्रकट करते हुए कडती ने कहा कि “इस साल मुझे मेरे खेत से लगभग 4 से 5 कुंटल धान मिलता लेकिन अब मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा।” आह भरते हुए गुड्डू ने कहा कि इस विषय में प्रशासन को की गई शिकायतों को प्रशासन ने अनसुना कर दिया और अब उनको अपनी पत्नी और पांच बच्चों के भरण- पोषण के लिए जाकर कुली का काम करना पड़ेगा।

राजूराम कडती की कहानी भी गुड्डू के जैसी ही है। अपनी ज़मीन की मिल्कियत के काग़ज़ात दिखाते हुए राजूराम ने कहा कि “मेरी 7 एकड़ की ज़मीन बेचापल सिक्योरिटी कैम्प में चली गई।” राजूराम का कहना था कि 4.168 एकड़ ज़मीन पर उसका मालिकाना हक़ दर्शाते हुए ज़मीन के काग़ज़ात त्रुटिपूर्ण हैं। अपनी बात पर डटे रहकर राजूराम ने कहा कि वो कुल 7 एकड़ ज़मीन के मालिक थे लेकिन रातों- रात कैम्प बनाने के लिए सुरक्षा बलों ने उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया।”
लेकिन यहां पर प्रश्न ये था कि अपनी ज़मीन पर कब्ज़ा किए जाने के ख़िलाफ़ राजूराम ने विरोध दर्ज क्यों नहीं कराया और इस पूरे प्रकरण को वो तहसीलदार या अन्य उच्च अधिकारियों तक लेकर क्यों नहीं गए?
इस सवाल पर राजूराम के चारों तरफ़ इकट्ठा ग्रामीणों ने एक सुर में कहा कि “राजू तब जेल में थे।” बहुत से लोगों ने कहा कि रोड और कैम्प के निर्माण के ख़िलाफ़ राजूराम कडती की मुखरता ठीक- ठाक थी। उन पर माओवादी होने का आरोप लगाते हुए कुल 39 मुक़दमों में उनकों लपेट लिया गया। पांच सालों तक वो सलाख़ों के पीछे थे। जब तक वो बाहर आए उनकी ज़मीन पर सिक्योरिटी कैम्प का निर्माण हो चुका था।
ये पूछे जाने पर कि अपनी ज़मीन के मामले को वो आगे प्रशासन के पास लेकर क्यों नहीं गए, उन्होंने कहा उनसे बोला गया था कि “ज़्यादा बकवास करेगा तो फ़िर जेल जाएगा।”
बहुत से ग्रामीणों का कहना था कि औपचारिक रूप से उनकी ज़मीन की लिखा- पढ़ी उनके नाम पर ना होने के कारण अपने भू- स्वामित्व को सुनिश्चित करने में उन्हें बहुत अड़चन आती है। चारों तरफ़ जमा ग्रामीणों में से एक ने कहा कि “हम तो दूर से अपने पेड़ों को कटते और खेत को उजड़ते हुए देखते हैं।”
जैसा कि कडती के साथ हुआ सरकार के रिकॉर्डों में सड़कों एवं सिक्योरिटी कैम्पों का निर्माण व संचालन ग्रामीणों के फ़ायदे के लिए आगे भी होता रहेगा।
बस्तर की वास्तविकता यही है कि खनिकों को खनिजों को बाहर तक लाने के लिए सड़कों की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है, जहां सुरेश जैसे ठेकेदार इन सड़कों का निर्माण कर के अंधा पैसा कमाते हैं वहीं मुकेश जैसे पत्रकार इन सड़कों से होने वाले विकास की कहानियां हम तक पहुंचाने के लिए अपनी जान और रोज़ी- रोटी को बलिदान कर देते हैं।
और आख़िरी में: अब अंत में जब हम आपसे विदा ले रहे हैं, बीजापुर, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के बॉर्डर पर माओवादियों और सशस्त्र बलों के बीच भीषण लड़ाई जारी है। सड़को का निर्माण कार्य होता रहेगा और भविष्य में बैलाडीला की पहाड़ियों को नई खदानें खोदने के लिए खोल दिया जाएगा।
आप बस्तर जंक्शन पर खड़े हैं।
आप उस बस्तर जंक्शन पर खड़े हैं जहां से मुकेश चंद्राकर अपनी मिट्टी की दास्तान सुनाया करते थे।
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