जिस प्रकार से मोदी सरकार खेती-किसानी से जुड़े व्यापार का निजीकरण करने के लिए निरंतर प्रयास करती रही है उसको देखकर ऐसा प्रतीत होता है की सरकार ‘कभी हार मत मानो’ के बोध वाक्य से प्रेरणा लेकर बैठी है।
मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ?
हुआ ये की जिस प्रकार से सरकार लगातार बड़ी से बड़ी बाधाओं से पार पाने की कोशिश करते हुए कृषि व्यापार का निजीकरण करने का प्रयास करती रही है उसकी समझ मुझे तब बनी जब मैंने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के लिये वर्ष 2018 में लांच हुयी किसानों को सहयोग प्रदान करने वाली एक असफल योजना, पीएम आशा योजना, की पड़ताल की।
हालांकि हमारी पड़ताल पीएम-आशा योजना की भ्रष्टाचारी उत्पत्ति के ऊपर केंद्रित थी लेकिन तमाम आंतरिक दस्तावेजों के बंडल-दर-बंडल खंगालने पर बात को बात से जोड़ते हुए हमें ये समझ आया की वर्ष 2017 से जो सरकार के द्वारा संचालित APMC के नाम से जाने जानी वाली अनाज मंडियों को खत्म कर खेती-किसानी के व्यापार को बड़े प्राइवेट निवेशकों के लिये खोलने का क्रम चल रहा है पीएम आशा योजना उसी क्रम का हिस्सा थी।
हमारी पड़ताल में ये पता चलना की पीएम-आशा योजना खेती के निजीकरण की ओर बढ़ाया हुआ कदम था इस बात को रेखांकित करता है की किस प्रकार से कृषि संबंधित व्यापार को प्राइवेटाइज करने और उसके कायदे-कानूनों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिशें लगातार जारी हैं।
और हमारी पड़ताल इस बात पर भी प्रकाश डालती है की आंतरिक तौर पर सरकार ने अपने इस इरादे को भी उजागर कर कर दिया था की उसे स्वयं “अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की प्रक्रिया” में खेती के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर के लिए जगह बनाने के लिए इस क्षेत्र से बाहर निकल आना चाहिए।
सरकार की तरफ से खेती के निजीकरण की इस मंशा पर बेशक गरमागरम बहस की जा सकती है लेकिन इस प्रकार की बहस से परे कुछ बातें पहले से स्पष्ट हैं।
उदाहरण के तौर पर जब अमेरिका जैसे देशों में जहां कृषि के क्षेत्र को भारी आर्थिक सहयोग दिया जाता है और जहां के किसानों की स्थिति भारत के किसानों से कही अच्छी है, भारत के किसानों से ये उम्मीद करना उनके साथ बहुत ज्यादती होगी की वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा करें।
दूसरी बात ये की जब भारत के किसान संघों ने ख़ुद तीन कृषि कानूनों जैसे उन कदमों का विरोध किया जो कदम उनके अनुसार प्राइवेट सेक्टर के द्वारा खेती को हड़पने का मार्ग प्रशस्त करते है तब सरकार अपने द्वारा उठाये गये कदमों को ही आखिरी विकल्प के रूप में दर्शाती रही जिससे किसानों के बीच पसरी घबराहट का स्तर बढ़ता चला गया।
और आखिरी बात ये की इस पूरे विषय में, जैसा हम इस लेख में आगे पीएम-आशा योजना के संदर्भ में देखेंगे, सरकार अपने इरादों को लेकर हमेशा से ही ईमानदार नहीं रही।
चलिये शुरू से शुरू करते है।
मोदी सरकार ने प्राइवेट कारोबारियों को कृषि क्षेत्र में लाने के लिये वर्ष 2017 में ही भूमिका बनाना प्रारम्भ कर दिया था।
सरकार की तरफ से प्राइवेट सेक्टर के लिये कालीन बिछाने की शुरुआत एग्रीकल्चर प्रोड्यूस एंड लाइवस्टॉक मार्केटिंग (APLM) एक्ट के साथ हुयी थी। इस एक्ट में कृषि व्यापार की “उदार” और ''प्रगतिशील'' कार्यपद्धति को सुनिश्चित करने के लिये कुछ कानूनों को प्रस्तावित किया गया था। और इस एक्ट के तहत राज्यों को ये छूट दी गयी थी की वो प्रस्तावित कानूनों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते थे।
APLM एक्ट का उद्देश्य ये था की सरकार द्वारा संचालित APMC मंडियों को खत्म किया जाये। और इस एक्ट के अनुसार राज्यों को लाइसेंस धारी निजी स्वामित्व वाली बाजारों का सृजन करना था।
लेकिन हुआ ये की इस एक्ट के तहत प्रस्तावित कानूनों को अधिकांश राज्यों ने अपनाने से इंकार कर दिया और कृषि उत्पादों की बाजारों का निजीकरण करने का सरकार का सपना मिट्टी में मिल गया।
मुख्य रूप से मोदी सरकार निजी कारोबारियों का कृषि बाजारों के भीतर प्रवेश अपने दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कराना चाहती थी। पहला, किसानों की आय को दोगुना करने के अपने वादे को पूरा करना और दूसरा बड़ा अजेंडा ये की, निजी कारोबारियों की मौजूदगी में सरकार चाहती थी की कृषि के कुल जमा बजट को कम करने के लिए किसानों को उनकी मुख्य फसलों के लिये दिये जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य में कटौती की जा सके।
सरकार हलांकि APLM एक्ट को तो लागू नहीं करा पायी लेकिन कृषि के प्राइवेटाइजेशन के लिये अपनी तरफ से किये गये दूसरे प्रयास में सरकार काफी खुशकिस्मत रही और सितंबर 2018 में सरकार ने पीएम-आशा योजना को लागू कर दिया।
पीएम-आशा योजना वास्तव में कुल तीन स्कीमों - दशकों पुरानी सरकार के द्वारा अनाज की सीधी खरीद, किसानों को हुए घाटे का सरकार की तरफ से मुआवजा देने के लिये मूल्य न्यूनता भुगतान योजना (PDPS) और प्राइवेट क्षेत्र के कारोबारियों के द्वारा किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की खरीद करने की व्यावहारिकता को मापने का प्रायोगिक प्रोजेक्ट – से मिलकर बनी थी।
जब सरकार की किसानों की आय को दोगुना करने में मदद करने वाली इस नई योजना से जुड़ी सुर्खियों ने आपको शायद चकित कर रखा था सरकारी दस्तावेज़ कुछ और ही कहानी बयाँ कर रहे थे।
वास्तव में पीएम आशा योजना दबी जुबान में पीछे के दरवाजे से कृषि बाजारों का निजीकरण करने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी।
जो राज्य अब तक APLM एक्ट 2017 के द्वारा किये गये संशोधन को लागू करने से बचते रहे थे उनसे अब जबरन कहा गया की वो पीएम आशा में प्रस्तावित संशोधनों का लाभ उठाने के लिये आगे आये।
अब बात ये थी की किसी राज्य को पीएम आशा योजना का पात्र बनने के लिये भी पहले या तो APLM एक्ट के प्राइवेट कारोबारियों के थोक व्यापार के लिये कृषि बाजार को अनुकूल बनाने जैसे सुधारों को लागू करना था या फिर केंद्र सरकार को कुछ निश्चित समय देना था जिससे केंद्र सरकार इन सुधारों को लागू कर सके।
इतना ही नहीं पीएम आशा योजना के तहत केंद्र सरकार सिर्फ कृषि व्यापार में सुधार नहीं करना चाहती थी बल्कि सरकार इस योजना के माध्यम से सुनिश्चित न्यूनतम मूल्य पर अनाज की खरीद में होने वाले खर्चे को कम कर किसानों को सहयोग प्रदान करने का बोझ भी राज्यों के ऊपर डालना चाहती थी।
आंतरिक दस्तावेज़ ये दिखाते है की क्योंकि केंद्र सरकार को किसानों के अनाज की खरीद का पूरा खर्च खुद अकेले वहन करना पड़ता है इसलिये केंद्र सरकार राज्यों से बेहद नाराज थी।
एक दस्तावेज़ में अनाज खरीद में राज्यों की सीमित भूमिका पर शोक प्रकट करते हुए केंद्र सरकार ने कहा की ''राज्यों का उत्तरदायित्व मात्र इतना है की वे मंडी के शुल्क पर छूट प्रदान कराते है और अनाज खरीद के समय मंडी में सारा बंदोबस्त देखते है''. केंद्र सरकार ने आगे कहा की ''चूंकि कृषि राज्यों का विषय है राज्यों को केंद्र के द्वारा वहन किये जाने वाले किसानों की अनाज की खरीद/ किसानों को प्रदान किये गये सहयोग के खर्चे से आगे उनको उनकी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को अदा करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए''।
बाद में केंद्र सरकार के द्वारा दिये गया उपरोक्त लिखित तर्क हमें सरकार की मूल्य न्यूनता भुगतान योजना (PDPS) में दबी जुबान में देखने को मिला। बताते चले PDPS स्कीम पीएम आशा योजना का मात्र ऐसा अकेला घटक था जिसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया था। PDPS के अंतर्गत सरकार ने वादा किया था की यदि अपनी फसल को बेचने पर तिलहन उगाने वाले किसानों की आय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होगी तो सरकार उसकी पूर्ति कर देगी।
PDPS के दिशा निर्देश ये कहते है की केंद्र सरकार किसानों के मात्र एक चौथाई फसल के नुकसान का उनको मुआवजा देगी और अगर राज्य सरकार बर्बाद हुई इससे ज्यादा फसल पर मुआवजा देना चाहती है तो राज्य सरकार को इसका खर्चा खुद ही वहन करना पड़ेगा।
केंद्र सरकार मात्र इतना भर नहीं चाहती थी की राज्य किसानों को दिये जाने वाले मुआवजे की लागत उठाये बल्कि केंद्र सरकार ये भी चाहती थी की राज्यों के खुद के अपने क्षेत्र में अनाज मंडियों का संचालन किस प्रकार होगा इस पर भी राज्यों के अधिकार को सीमित कर दिया जाये।
APMC मंडियों में अनाज को बेचने के लिये भारत के विभिन्न राज्यों में अपने-अपने नियम है। सामान्य तौर पर किसान अपनी फसल की बाजार में नीलामी करते हैं और बाजार में इस प्रकार की सभी विक्रियों का ब्योरा रखा जाता हैं। इसी पूरी प्रक्रिया में बिचौलियों के नाम से जाने वाले व्यापारी किसानों से बाजार मूल्य पर अनाज खरीदते हैं वही सरकार भी समय-समय पर अपनी कल्याणकारी योजनाओं और बाजार मूल्य को नियंत्रित करने के लिये मंडियों से अनाज को खरीदती है।
लेकिन हमारी पड़ताल दिखाती है की अनाज खरीद की उपरोक्त लिखित पूरी प्रक्रिया का पालन करने वाले अधिकांश राज्यों ने पीएम-आशा योजना को अपनाने से इंकार कर दिया। बात ये थी की पीएम आशा योजना अपनी अवधारणा में ही राज्यों को भ्रष्ट प्रतीत हो रही थी।
वास्तव में पीएम आशा योजना मध्य प्रदेश के भ्रष्टाचार से भरे एक असफल प्रयोग पर आधारित थी जिसकी अवधारणा मात्र को ही विभिन्न राज्यों और विशेषज्ञों ने सिरे से नकार दिया था लेकिन इसके बावजूद सरकार ने पीएम आशा के रूप में मध्य प्रदेश की इस असफल प्रयोग का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार कर दिया। हुआ ये था की मध्य प्रदेश के PDPS प्रयोग में बिचौलियों को अनाज के बाजार मूल्य के साथ हेराफेरी कर सरकार से धोखाधड़ी करते हुए उससे मुआवजे के नाम पर बहुत अधिक पैसा वसूलने का मौका मिल गया था। (इस पूरी पड़ताल को आप यहां पर विस्तार से पढ़ सकते है)।
पीएम-आशा योजना को लेकर राज्यों की तरफ से दिखायी गयी बेरुखी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने इस योजना को टुकड़ों में लागू करने की जगह अब यह निश्चित किया की वो पूरी योजना को अकेले अपने दम पर ही लागू करेगी। तथ्य ये है की सरकार बहुत पहले से योजना को अपने अकेले खुद के दम पर लागू कराना चाहती थी और सितंबर 2020 को सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को पूरे देश पर थोप कर ऐसा कर दिखाया। और कृषि कानूनों के आते ही देश भर में किसानों का विद्रोह प्रारम्भ हो गया।
जहां पीएम आशा योजना में सरकार बहुत मीठी जुबान बोलते हुए कृषि का निजीकरण करने के अपने लक्ष्य में असफल हो गयी थी वही इन तीन कृषि कानूनों के जरिये सरकार ने अब खुल्लम-खुल्ला अनाज मंडियों को निजी निवेश के लिये खोल दिया।
तीन कृषि कानूनों में से एक, फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) एक्ट, 2020, APLM एक्ट की ही तरह अनाज के निजी बाजारों की स्थापना की रूपरेखा प्रस्तावित करता था।
विशेषज्ञों के अनुसार इन तीन नये कृषि कानूनों के बाद कोई भी वो बाजार जो राज्य के द्वारा संचालित नहीं थे केंद्र सरकार के सीमा क्षेत्र में आने वाले थे।
साधारण शब्दों में कहे तो कृषि कानून उन सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लाये गये थे जो उद्देश्य पीएम आशा योजना के विफल होने से पूरे नहीं हो पाये थे।
विपक्षी पार्टियों के द्वारा संचालित राज्य सरकारों की कृषि कानूनों से नाखुशी लाजिम थी लेकिन सबसे ज्यादा चिंता की बात ये थी की कृषि कानूनों से किसान तिलमिला गये थे। और कुछ समय में ही कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर किसानों ने अपना आंदोलन प्रारम्भ कर दिया जो एक साल तक चला था।
जब कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन प्रारम्भ हुआ तब नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने ''न्यू फॉर्म एक्ट्स: अंडरस्टैंडिंग द इप्लीकेशन'' के शीर्षक से एक पेपर प्रकाशित किया। हालांकि इस पेपर में कृषि कानूनों के पक्ष में तर्क दिये गये थे लेकिन इन तर्कों को छोड़कर कुछ नयी बातें भी बतायी गयी थी।
अपने पेपर में एक बिंदु पर बड़ी ही साफगोई से चंद स्वीकार करते है की: केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को राज्यों पर इसलिये थोप दिया क्योंकि अधिकांश राज्य केंद्र सरकार की इच्छानुसार अपने APMC नियमों में सुधार नहीं करना चाहते थे।
लेकिन अंत में तीसरी बार भी अनाज के व्यापार का निजीकरण करने के अपने उद्देश्य में मोदी सरकार नाकाम हो गयी और नवंबर 2021 में मोदी सरकार को कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा।
क्या अब मोदी सरकार खेती का निजीकरण करने के लिये अपनी कारस्तानियों से बाज आयेगी और सभी से परामर्श करके नीतियां बनाना शुरू करेगी?
This article is translated from English by Alok Rajput
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